गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 400

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

एकादश: सर्ग:
सामोद-दामोदर:

अथ विंश सन्दर्भ:

20. गीतम्

Prev.png

पद्यानुवाद
चल सखि, चल घनश्याम सदन में मंजुल वंजुल
कुंज केलि थल देख थके हरि तुझको पल-पल।
की मनुहारे गिरे चरण तल भर लाये री नीर नयन में
चल सखि! चल घनश्याम सदन में॥

बालबोधिनी- सखी कहने लगी हे राधिके! वे मधुरिपु श्रीकृष्ण तुम्हारे सम्पूर्ण रूप से अनुगत हो गये हैं। तुम उनके पास चलो एवं शीघ्र ही अभिसरण करो। देर मत करो। अपने मधुर-मधुर वचनों से उन्होंने तुमसे अनुनय विनय किया है। तुम्हारे चरणों में सर्वात्मभाव से प्रणिपात किया है। तुम्हारे स्वागत की तैयारी में संलग्न होकर इस समय वेतसी कुंज के अन्तर्गत केलि-शय्या पर आसीन हो रहे हैं, तुम उनका अनुसरण करो। हे मुग्धे! तुम कितनी भोली हो, प्रिय के अभिसरण काल को भी नहीं जानती हो। चलो उनका अनुसरण करते हुए सर्वात्मभाव को प्राप्त हो जाओ।

प्रस्तुत श्लोक में 'राधिके' में 'क' प्रत्यय उसके मुग्धत्व को द्योतित करता है। मधुसूदन का अनुसरण करो। विलम्ब मत करो, यह ध्रुव पद है। तञ्जुल आदि विभाव से निकुंज उपादान इत्यादि प्रकट हो रहा है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः