गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 295

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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रति-गृह-जघने विपुलापघने मनसिज-कनकासने।
मणिमय-रसनं तोरण-हसनं विकिरति कृत-वासने
रमते यमुना-पुलिन वने..... ॥5॥[1]

अनुवाद- मांसल, सुगन्धित, विपुलतर कन्दर्प के सुवर्ण-पीठ-स्वरूप के समान रतिगृह तुल्य उस रमणी के जघन-स्थल में मणिमय मेखलारूपी मंगल तोरण धारण करा रहे हैं।

पद्यानुवाद
मनसिज कनकासन सम उसके मांसल रतिगृह-जघने।
सजा रहे तोरण सम कांची (स्मित अंकित वर वदने)॥
यमुन-पुलिन के सघन कुंज में रमते आज मुरारी।
प्रियकी अमर सुहागिनि होकर जीती बाजी हारी॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- विपुलापघने (विपुलम् अपघनम् अंगम् आयतन-मित्यर्थ: यस्य तादृशे विशाले इत्यर्थ:) मनसिज-कनकासने (मनसिजस्य कामस्य कनकासने स्वर्णपीठे) तथा कृतवासने (कृता वासना लीला-विशेषवासना येन तादृशे दृष्टिमात्रेणैव कामोद्दीपके इत्यर्थ:) [तस्या:] रतिगृहजघने (रते: श्रृंगारस्य गृहम् आश्रय एव जघनं कटि-पुरोभाग: नितम्बो वा तस्मिन्) तोरणहसनं (तोरणस्य बहिर्द्वारशोभार्थ मांगल्यस्त्रज: हसनम् उपहास: यस्मात तत् ततोऽप्यधिकमनोज्ञमित्यर्थ:) मणिमयरसनं (मणिमयं रसनं काञ्चीं) विकिरति (निक्षिपति) [तत्स्पर्शजात-कम्पतया अयथातथं विन्यस्यतीत्यर्थ:] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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