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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्
त्यजति न पाणि-तलेन कपोलम्। अनुवाद- अरुणवर्ण के कर-कमल पर कपोल को सन्ध्या समय में आकाश-स्थित चन्द्रकला की शोभा के समान धारण किये एकान्त में बैठी रहती हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- किंकर्तव्यविमूढ़ श्रीराधा जड़-सी हो गयी हैं। उनकी एक हथेली बराबर उनके गालों पर लगी रहती है, चिन्तामग्न होने के कारण उसे छोड़ती नहीं। दिन किसी प्रकार निकल जाता है, पर क्या होगा जब रात आयेगी, वह तो मेरे लिए एक युग के समान होगी। सायंकाल के चन्द्रमा के समान उनका मुख क्षीणकान्ति निस्तेज, शान्त तथा हाथ से आधा ढका हुआ द्वितीया के चन्द्रमा के समान लगता है। सन्ध्या जैसे बाल चन्द्रमा को टिकाये रहती है, उसी प्रकार हथेली का कवच मानो उसे सुरक्षा प्रदान कर रहा है। हाथ से ढके हुए अद्धर्दृश्यमान मुख की उपमा चन्द्रमा से दी गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सायं (सन्ध्यायां) (रागरञ्जिते आकाशतले संलग्नमिति शेष:) अलोलं (अचञ्चलं) बालशशिनमिव (तरुणचन्द्रमिव) पाणितलेन (करतलेन सुलोहितेनेत्यर्थ:) कपोलं (विरहपाण्डुरं गण्डदेशं) [कपोलस्य अद्धर्भागमात्रदर्शनात् आताम्रत्वात्र पाण्डुत्वाच्च बालचन्द्रेण अस्योपमा] न त्यजति (धारयतीति भाव:) ॥5॥
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