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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
वस्तुतः यह सारा जड-चेतन विश्वभुवन मेरी ही अभिव्यक्ति है और स्वरूपतः मुझसे अभिन्न है। यह मेरी लीला है, ऐश्वरयोग है। कल्प के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति में चले जाते हैं और कल्प के आदि में मैं पुनः अपनी प्रकृति से उन्हें प्रकट कर देता हूँ। इतना होते हुए भी मैं नित्य अपनी महिमा में अपने स्वरूप में स्थित हूँ, मैं उदासीनवत् आसीन किसी भी कर्म से नहीं बँधता (गीता 9/79)। तदनन्तर अपनी महिमा और सकाम देवोपासकों की पुनरावर्तिनी स्वर्ग गति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो दूसरे देवताओं को पूजते हैं वे भी मुझको ही पूजते हैं, परंतु ‘समग्र’ को जानकर नहीं पूजते इसलिये उनकी पूजा अज्ञानकृत है। मैं ही सबका स्वामी, भोक्ता और सर्वरूप हूँ। इस रहस्य को तत्व से न जानने के कारण वे लोग पुनरावर्तिनी गति को पाते हैं, यानी प्राप्ति की हुई स्थिति से गिर जाते हैं (गीता 9/23-24)। फिर अपने भजन की-शरणागति की महिमा बतलाकर अन्त में आप खुले शब्दों में परम रहस्य की घोषणा करते हैं- मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। ‘इस प्रकार मुझ समग्र को जानकर तुम मुझ में ही मन लगाओ, मेरे ही भक्त बनो, मेरी ही पूजा करो, मुझको ही नमस्कार करो; इस तरह आत्मा को लगाकर मेरे परायण-मेरे अनन्य शरण होने से तुम मुझको ही प्राप्त होओगे।’ यहाँ भगवान् के द्वारा गुह्यतम रहस्य बतलाया गया, परंतु अर्जुन कुछ नहीं बोले। तब दशम अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने कहा कि अच्दी बात है, मैं अब फिर (‘भूयः’) तुम से तुम्हारे हितार्थ अपना परम रहस्ययुक्त सिद्धान्त सुनाता हूँ, क्योंकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो। देखो, मेरे प्रभाव को देवता-महर्षि कोई भी नहीं जानते; क्योंकि मैं ही सबका आदि हूँ, जो मुझको अज, अनादि और लोकमहेश्वर तत्वतः जान लेते हैं, वे असंमूढ पुरुष सब पापों से छूट जाते हैं (गीता 10/1-3)। इसके बाद अर्जुन के पूछने पर भगवान् ने अपनी प्रधान-प्रधान विभूतियों का वर्णन किया। इस विभूति वर्णन में भगवान् ने विष्णु, शंकर, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, वरुण, कुबेर, अग्नि, वायु प्रभृति समस्त देवताओं को भी अपनी विभूति ही बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दोहा नं0 (9/34)
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