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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
आधिदैविक मानते हैं कि ‘देवता ही सब कुछ करते हैं, वे ही मन, बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियों के संचालक, भर्ता, पोषक और भोगविधाता हैं, यज्ञ-यागादि उपासना के द्वारा उन्हीं को संतुष्ट करने से कार्य की सिद्धि हो सकती है। उन देवताओं में भी सबसे प्रधान परमदेव समग्र ब्रह्माण्ड के अभिमानी देवता या सबके स्वामी एक ही हैं, जिनको विभिन्न सम्प्रदायों के लोग हिरण्यगर्भ, ब्रह्मा, शिव, शक्ति, नारायण, सूर्य आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं।’ यह सूक्ष्मदर्शी आधिदैविक पुरुषों की मान्यता है। याज्ञिक लोग यज्ञ को ही प्रधान धर्म मानते हैं और उनके अधिष्ठातृ-देवताओं की आराधना भाँति-भाँति के यज्ञों द्वारा करते हैं। इस प्रकार अनेकों मत-मतान्तर प्रचलित हैं और अपनी-अपनी दृष्टि से सभी ठीक हैं। तात्विक दृष्टि से भी सब मत अपनी-अपनी पद्धति और भाव से एक ही भगवान् की पूजा करने वाले होने से भगवान् के ही उपासक हैं, परंतु ‘समग्र’ को न जानने के कारण उनकी पूजा पूर्णांग नहीं होती। भगवान् श्रीकृष्ण अपने ‘समग्र’ स्वरूप की व्याख्या करने के अभिप्राय से यहाँ इन सबका समन्वय करते हुए सबको अपनी ही अभिव्यक्ति बतलाते हैं। इसी से वे उपर्युक्त गीता के श्लोक (8/3-5)-में कहते हैं- परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है; मेरी अपरा प्रकृति के साथ संलग्न होने वाला जो निर्विकार परा प्रकृति रूप मेरा (भगवान् का) अपना भाव (अंशरूप) है, वही जीवात्मा रूप से जड के अंदर अनुस्यूत ब्रह्म ही ‘अध्यात्म’ है। अपरा प्रकृति और उसके परिणाम से उत्पन्न समस्त भूतरूप जो मेरा क्षरभाव है वही ‘अधिभूत’ है। भूतों का उद्भव और अभ्युदय जिस विसर्ग-त्याग अथवा यज्ञ से होता है, जो सृष्टि-स्थिति का आधार है, वह विसर्ग ही ‘कर्म’ है। यह भगवान् का ही एक विशेष विकास है। ‘यज्ञो वै विष्णुः’ पुरुष सूक्तोक्त विराट् ब्रह्माण्डाभिमानी हिरण्यमय पुरुष ही ‘अधिदेव’ है। इसी को सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ प्रजापति या ब्रह्मा कहते हैं। प्रत्येक देवता इसका एक-एक अंग है, चेतना चेतनात्मक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का यही प्राणपुरुष है। भगवान् के इस पुरुष भाव का विकास ही ‘अधिदैव’ है। भगवान् ही सब यज्ञों के भोक्ता हैं और प्रभु हैं। अतएव वे कहते हैं कि मैं ही ‘अधियज्ञ’ हूँ और इस शरीर में ही अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ। अन्तकाल में जो पुरुष इस प्रकार के मुझ ‘समग्र’ को स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है वह निःसंदेह मेरे ही भाव को-मेरे ही साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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