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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पुरुषोत्तम-तत्व
गीता के ‘अहम्’, ‘मम’,‘माम्’, ‘मे’, ‘मयि’ आदि अस्मत् पदों से और पूर्वापर का सारा विचार करने से यही सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ही गीता के पुरुषोत्तम-तत्व के दिव्य मूर्तस्वरूप हैं। गीता की सारी आलोचना इन्हीं को लेकर हुई है और स्थान-स्थान पर नाना प्रकार से इन्होंने अपने को जगद्व्यापी, जगत्स्त्रष्टा, जगन्मय और जगत् से अत्यन्त अतीत परम तत्व घोषित किया है। ये श्रीकृष्ण निर्गुण हैं या सगुण, निराकार हैं या साकार, ज्ञेयतत्व हैं या ज्ञाता, मायामय हैं या माया से अतीत, आदि प्रश्नों का उत्तर युक्तियों से और प्रमाणों से देना तथा समझना सम्भव नहीं है। भगवान् की कृपा से ही भगवान् का कोई तत्व समझ में आ सकता है। गीता के अठारहवें अध्याय में भगवान् ने स्पष्ट ही कहा है कि ‘ब्रह्म की प्राप्ति के अनन्तर मेरी ‘परा भक्ति’ मिलती है और उस परा भक्ति के द्वारा मेरे यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है’ [1] इतना होते हुए भी शास्त्रों के और भगवान् के श्रीमुख से निकले हुए वचनों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे प्रकृति के गुणों से सर्वथा अतीत होने पर भी अपने अचिन्त्यानन्त दिव्य गुणों से नित्य विभूषित हैं, प्राकृत क्रियाओं से सर्वथा अतीत होने पर भी नित्य लीलामय हैं और जड पांच भौतिक आकार से सर्वथा रहित होने पर भी सच्चिदानन्दस्वरूप, हानोपादानरहित, देह-देहिभेदहीन दिव्य देह से नित्य युक्त हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवान् शंकर जी से स्वंय कहा है
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (18/54-55)
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