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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भक्ति योग
इससे यह सिद्ध हुआ कि गीता के सगुण-साकार-व्यक्त भगवान्, निराकार-अव्यक्त, अज और अविनाशी रहते हुए ही साकार मनुष्यादि रूप में प्रकट हो लोकोद्धार के लिये विविध लीलाएँ किया करते हैं। संक्षेप में यही गीतोक्त व्यक्त-उपास्य भगवान् का स्वरूप है। अब व्यक्तोपासक की स्थिति देखिये। गीता का साकारोपासक भक्त, अव्यवस्थित चित्त, मूख, अभिमानी, दूसरे का अनिष्ट करने वाला, धूर्त, शोकग्रस्त, आलसी, दीर्घसूत्री, अकर्मण्य, हर्ष शोकादि से अभिभूत, अशुद्ध आचरण करने वाला, हिंसक स्वभाव वाला, लोभी, कर्म फल का इच्छुक और विषयासक्त नहीं होता, पाप के लिये तो उसके अंदर तनिक भी गुंजाइश नहीं रहती। वह अपनी अहंता-ममता अपने प्रियतम परमात्मा के अर्पण कर निर्भय, निश्चिन्त, सिद्धि-असिद्धि में सम, निर्विकार, विषयविरागी, अनहंवादी,सदा प्रसन्न, सेवापरायण, धीरज और उत्साह का पुतला, कर्तव्यनिष्ठ और अनासक्त होता है। भगवान् ने यहाँ साकारोपासना का फल और उपासक की महत्ता प्रकट करते हुए संक्षेप में उसके ये लक्षण बताये हैं-‘वह केवल भगवान् के लिये ही सब कर्म करने वाला, भगवान् को ही परम गति समझकर उन्हीं के परायण रहने वाला, भगवान् का ही अनन्य और परम भक्त, सम्पूर्ण सांसारिक विषयों में आसक्ति रहित, सब भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित, मनको परमात्मा में एकाग्र करके नित्य भगवान् के भजन-ध्यान में रत, परम श्रद्धा सम्पन्न, सर्वकर्मों का भगवान् में भलीभाँति उत्सर्ग करने वाला और अनन्यभाव से तैलधारावत् परमात्मा के ध्यान में रहकर भजन-चिन्तन करने वाला होता है [1]। गीतोक्त व्यक्तोपासक की संक्षेप में यही स्थिति है। भगवान् ने इसी अध्याय के अन्त के 8 श्लोकों में व्यक्तोपासक सिद्ध भक्त के लक्षण विस्तार से बतलाये हैं। अब रही उपासना की पद्धति। सो व्यक्तोपासना भक्ति प्रधान होती है। अव्यक्त और व्यक्त की उपासना में प्रधान भेद दो हैं- उपास्य के स्वरूप का और उपासक के भाव का। अव्यक्तोपासना में उपास्य निराकार है और व्यक्तोपासना में साकार। अव्यक्तोपासना का साधक अपने को ब्रह्म से अभिन्न समझकर ‘वासुदेवः सर्वमिति’ कहता है। उसकी पूजा में कोई आधार नहीं है और इसकी पूजा में भगवान् के साकार मनमोहन विग्रह का आधार है। वह सब कुछ स्वप्नवत् मायिक मानता है तो यह सब कुछ भगवान् की आनन्दमयी लीला समझता है! वह अपने बल पर अग्रसर होता है तो यह भगवान् की कृपा के बल पर चलता है। उसमें ज्ञान की प्रधानता है तो इसमें प्रेम की। अवश्य ही परस्पर प्रेम और ज्ञान दोनों में ही रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता/11/55; 12/ 2,6-7)
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