विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टादश अध्याय
विशद बुद्धि से युक्त तथा सादा, सात्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्विक धृति के द्वारा अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भली-भाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममता रहित और शान्तियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म की प्राप्ति का (ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का) पात्र होता है। फिर वह ब्रह्मभूत (ब्रह्म को प्राप्त-सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित) आनन्द स्वरूप योगी न तो किसी बात का शोक करता है और न कुछ आकांशा ही करता है। ऐसा समस्त भूत प्राणियों में सम भावापन्न (अपने समेत सब में सर्वत्र अभिन्न समभाव से ब्रह्म की अनुभूति करने वाला) योगी मेरी (पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण की) ‘पराभक्ति’ को प्राप्त होता है। उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्व से जानकर तत्काल ही मुझ (भगवान्)-में प्रविष्ठ हो जाता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘अहं’ और ‘मम’ पदों के वाच्य भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्म से अभिन्न तो हैं ही, वे ‘ब्रह्म की प्रतिष्ठा’ भी हैं। ब्रह्म उन्हीं अनन्त-आचित्य-अनिर्वचनीय परस्पर विरोधी गुण धर्माश्रय-स्वरूप, ‘क्षर जगत्’ से अतीत और ‘अक्षर ब्रह्म’ से उत्तम भगवान् पुरुषोत्तम का ही एक निराकार, निर्विकार, निष्क्रिय, निर्विशेष स्वरूप है। इस ब्रह्म का तत्व से साक्षात्कार होने पर प्रकृतिस्थ जीव प्रकृति के संयोग से वियुक्त, माया से एवं प्रकृतिजन्य गुणों के बन्धन से विमुक्त होकर समस्त भूतों में सदा सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म को सम देखता है। वह ब्रह्मज्ञानी शोक और आकांक्षा से रहित कृतकृत्य-जीवन्मुक्त हो जाता है। पर इतने से समर्पण-भावयुक्त पूर्ण शरणागति के लिये आदेश, गीता के महान् उपदेश का उपसंहारही वह भगवान् के-‘वे जो जैसे जितने हैं’-(‘यावान्यश्चास्मि’) उस स्वरूप को तत्व से ठीक-ठीक नहीं जान पाता। इस समग्र स्वरूप पुरुषोत्तम का पूरा ज्ञान होता है-‘परा भक्ति’-प्रेमा भक्ति से। इस ज्ञान के होते ही वह उनकी लीला में प्रवेश कर जाता है- ‘विशते तदनन्तरम्’। ये समग्र स्वरूप पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं।भगवान् पहले कह आये हैं-‘‘‘‘‘सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः’ (7/3)। ब्रह्मज्ञानी सिद्धों में कोई-कोई मुझ समग्र पुरुषोत्तम को तत्व से ठीक-ठीक जानता है। क्षेत्र, ज्ञान और ‘ज्ञेय’ (ब्रह्म)-को जानकर मेरा भक्त मेरे भाव (पुरुषोत्तम-तत्व)-को प्राप्त होता है। (13/18)। ‘मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ’ (14/27)। इन सब वचनों से भी यही स्पष्ट संकेत मिलता है।
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज