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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
द्वितीय अध्यायश्रीभगवान् बोले- अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों की-सी बातें भी बना रहा है; परंतु पण्डितजन, जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिन के प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते। क्योंकि वास्तव में- न तो ऐसा ही है कि मैं पहले कभी नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। इस देह में जैसे जीवात्मा को बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था प्राप्त होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; इस बात को समझने वाला धीर पुरुष मोहित नहीं होता (शोक नहीं करता)। कुन्तीपुत्र! सर्दी-गरमी और सुख-दुःख के देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाश शील और अनित्य हैं; इसलिये भारत! इनको तू सहन कर; क्योंकि पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह अमृतत्व-मोक्ष के योग्य होता है। असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है। उस (चेतन आत्मतत्व)-को तू नाशरहित जान, जिससे यह सम्पूर्ण (जड) जगत्-दृश्य वर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्य स्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर अन्त वाले-नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर। जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है। यह आत्मा न तो किसी काल में जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है। पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है? जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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