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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टादश अध्याय
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ । भरत श्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक पुरुष भगवान् के भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है-ऐसा सुख आरम्भ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत तुल्य है; अतएव वह आत्म बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्विक कहा गया है। जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले-भोग काल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य होता है, वह सुख राजस कहा गया है।। 38।। जो सुख आरम्भ में-भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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