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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
षोडश अध्याय
वे (आसुर-मानव)सैकडों आशा की फाँसियों से बँधे हुए काम-क्रोध के परायण होकर विषय-भोगों के लिये अन्याय पूर्वक धनादि पदार्थों के संचय की चेष्टा किया करते हैं। (वे सोचा करते हैं-)मैंने आज यह प्राप्त कर लिया और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और यह (धन) फिर मेरा हो जायगा। वह शत्रु तो मेरे द्वारा मार डाला गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य का भोगने वाला हूँ; मैं सिद्ध (सफल जीवन), बलवान् और सुखी हूँ । मैं बड़ा धनी और कुटुम्ब वाला (जन-नेता) हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोह रूप जाल से समावृत और विषय भोगों में आसक्त आसुर मानव घोर अपवित्र नरक में गिरते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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