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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
षोडश अध्याय
अर्जुन! इस लोक में प्राणियों की सृष्टि (मनुष्य समुदाय की श्रेणी) दो ही प्रकार की है-एक तो दैवी और दूसरी आसुरी। उनमें से दैवी प्रकृति तो विस्तार पूर्वक कही जा चुकी है; अब तू असुर-मानवों की प्रकृति को भी विस्तार पूर्वक मुझसे सुन। आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति-इन दोनेां को ही नहीं जानते। इसलिये उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य ही है। वे (आसुर-मानव) कहा करते हैं कि जगत् सर्वथा असत्य, अप्रतिष्ठ (आश्रय रहित) और ईश्वर रहित है। यह अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है। अतएव केवल काम ही इसका हेतु है। इसके सिवा और क्या हेतु है?। इस प्रकार की दृष्टि का अवलम्बन करके नष्ट (पतित) स्वभाव अन्तःकरण, मन्दबुद्धि, सबके अहित में संलग्न, वे उग्र कर्म करने वाले मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिये ही उत्पन्न होते हैं। वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान-मोह से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण कर एवं अशुद्ध आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं। वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों के भोग में तत्पर रहने वाले और ‘इतना ही परम पुरुषार्थ और परम सुख है’-इस प्रकार मानने वाले आसुर मनुष्य होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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