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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पंचदश अध्याय
यो मामेवमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् । भारत! जो ज्ञानी पुरुष इस प्रकार मुझको (श्रीकृष्ण को) ही पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव श्रीकृष्ण को ही भजता है।[1] निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह गुह्यतम (अति रहस्य युक्त गोपनीय) शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया। इसको तत्व से जानकर मुनष्य ज्ञानवान् और कृतकृत्य हो जाता है। श्रीमद्भगवद् गीता-‘पुरुषोत्तम योग’ नामक पंचदश अध्याय |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1. जीवों का विनाशी शरीर ‘क्षर’ है और क्षर से अतीत एवं अक्षर से उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ है ऐसा अर्थ सर्वथा युक्ति युक्त है। एक दूसरी दृष्टि से इसका अर्थ यों किया जाता है कि प्रकृति-प्रसूत सर्वभूतमय जगत् ‘क्षर’ है, ब्रह्म ‘अक्षर’ है, और इनसे क्रमशः अतीत और उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ है। ‘क्षर जगत्’ गुणमय विकारी है। ‘अक्षर ब्रह्म’ निर्गुण निर्विकार निराकार है और ‘पुरुषोत्तम’ भौतिक आकार रहित, सर्वथा अविकार, अप्राकृत सच्चिद्घनाकार हैं-प्राकृत गुणों से सर्वथा रहित, सच्चिन्मय, दिव्य गुणस्वरूप हैं। ये पुरुषोत्तम स्वयं श्रीकृष्ण हैं (‘यो मामेवं जानाति पुरुषोत्तमम्’-जो मुझको ही ‘पुरुषोत्तम’ जानता है)। यही गुह्यतम तत्व है। परमात्मा का विनाशी भूतमय जगत् के रूप में अभिव्यक्ति होना रहस्यमय होने के कारण यह ‘क्षर’ तत्व ‘गुह्य’ है, अक्षर परब्रह्म ‘गुह्यतर’ है (‘ज्ञानमाख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं मया’ 18/63) और इन दोनों से विलक्षण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का तत्व ‘गुह्यतम’ तत्व का वर्णन किया है। वहाँ भगवान् ने अपने एकान्त प्रिय भक्त अर्जुन को उसके हितार्थ इस गुह्यतम परम तत्व का विशेष विशद रूप से स्पष्ट उपदेश किया है और सब धर्मों का त्याग करके एकमात्र अपनी शरण ग्रहण करने का आदेश देते हुए गीता के अन्तिम उपदेश के रूप में ‘सर्वगुह्यतम’ के नाम से इसे बतलाया है।
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