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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
त्रयोदश अध्याय
जो ज्ञेय (जानने योग्य) है तथा जिसको जानकर (मनुष्य) अमृतत्व को प्राप्त होता है, उसको भली-भाँति कहूँगा। वह अनादिमत्1 परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता है; न असत् ही ।। 12।। वह सब ओर हाथ, पैरवाला सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कान वाला है। वह संसार में सबको प्राप्त करके स्थित है।। 13।। वह सब इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु सब इन्द्रियों से रहित है, आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों का भोक्ता है।। 14।। वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर रूप भी वही है, वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है; तथा वह अति समीप भी है और दूर में स्थित है।। 15।। वह परमात्मा 1. इस श्लोक में आये हुए ‘अनादिमत् परम्’ का कुछ आचार्यों ने ‘अनादि’ ‘मत्परम्’ के रूप में पदच्छेद किया है। अर्वाचीन ही नहीं, प्रातःस्मरणीय भाष्यकार आचार्य श्रीशंकराचार्य के गीताभाष्य लिखते समय सम्भवतः उनके सामने भी गीता की ऐसी कई टीकाएँ वर्तमान थीं, जिनमें ‘अनादि’ ‘मत्परम्’ पदच्छेद करके उसका यह अर्थ किया गया था कि ‘मैं वासुदेव कृष्ण ही जिसकी शक्ति हूँ, वह ज्ञेय मत्परम् है।’ भगवान् शंकराचार्य के शब्द ये हैं-‘अत्र केचिद् अनादि मत्परम् इति पदं छिन्दति’’’’’’अर्थ विशेषं च दर्शयन्ति ‘अहं वासुदेवाख्या पराशक्तिः यस्य तद् मत्परम्’ इति’’’’’ ‘मत्परम्’ पदच्छेद करने से अर्थ भी होते हैं-‘ब्रह्म मेरी ही एक परम सत्ता है।’ ‘मैं ब्रह्म का आश्रय हूँ।’ आदि। और ज्ञेय तत्व के जानने के बाद इसी भगवद् भाव (भववत्स्वरूप)-की प्राप्ति होती है। गीता चतुर्दश अध्याय में ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ से भी यही अर्थ निकलता है। विभाग रहित होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है तथा वह ज्ञेय (जानने योग्य परमात्मा) सब भूतों को धारण-पोषण करने वाला, संहार करने वाला तथा सबको उत्पन्न करने वाला है।। 16।। वह ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानयम्य (तत्व ज्ञान से प्राप्त करने योग्य) है और सबके हृदय में स्थित है।। 17।। ॊइस प्रकार, क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय का स्वरूप संक्षेप से कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे भाव को प्राप्त होता है।। 18।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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