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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
त्रयोदश अध्याय
मानहीनता, दम्भहीनता, अहिंसा (किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना), क्षमा, मन-वाणी की सरलता, (श्रद्धा-भक्ति सहित) आचार्य सेवा, (बाहर-भीतर की) शुद्धि, (अन्तःकरण की) स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह, इन्द्रियों के भोगों में वैराग्य और अहंकारहीनता, जन्म-मृत्यु, जरा (बुढ़ापा) एवं रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार देखना; पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में अनासक्ति, ममता का अभाव, प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना; मुझ भगवान् में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव, विषयासक्त जन-समुदाय में अप्रीति, अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है-ऐसा कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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