|
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकार मुदाहृतम्।।7।।
श्री भगवान् बोले- कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’- इस नाम से कहा जाता है और इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’-इस नाम से इनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। अर्जुन! सब क्षेत्रों में तू क्षेत्रज्ञ भी मुझको ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का (विकास सहित प्रकृति का और पुरुष का) जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है-ऐसा मेरा मत है। वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन। (यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व) ऋषियों के द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों के द्वारा भी विभागपूर्वक बतलाया गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है। (पाँच) इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध), इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति इस प्रकार विकारों से सहित यह क्षेत्र संक्षेप में बतलाया गया।
|
|