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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
द्वादश अध्याय
जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, सबका ही स्वार्थ रहित मित्र और हेतुरहित दयालु, ममता और अहंकार से रहित, दुःख-सुखों की प्राप्ति में सम, क्षमाशील (अपराध करने वालों का भी कल्याण करने वाला), योगी, निरन्तर संतुष्टि, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जिससे किसी जीव को उद्वेग नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव के द्वारा उद्वेग को प्राप्त नहीं होता; जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है, वह भक्त मुझको प्रिय है। जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, दक्ष, उदासीन-पक्षपात से रहित और व्यवथाओं से मुक्त है, वह (अपने लिये) सारे आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है और न आकांक्षा करता है तथा जो शुभ-अशुभ (दोनों प्रकार के) सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है; वह भक्ति युक्त पुरुष मुझ को प्रिय है। जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है, सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में सम है, मौन (ममन शील) है, जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है और घर में (रहने के स्थान में) ममता और आसक्ति से रहित है, वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान् पुरुष मेरे परायण होकर इस उपर्युक्त धर्ममय अमृत का निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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