विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
द्वादश अध्याय
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसार-सागरात्। श्री भगवान् बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ दिव्य साकार रसगुण स्वरूप परमेश्वर जो भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं। परंतु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भलीभाँति वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अचिन्त्य स्वरूप और कूटस्थ, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर अभिन्न भाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी भी मुझको ही प्राप्त होते हैं। उन अव्यक्त निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वालों के क्लेश अधिकतर हैं; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त विषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है।[1] परंतु जो भक्त सम्पूर्ण कर्मों का मुझमें संन्यास (पूर्ण समर्पण) करके, मेरे परायण, (मुझको ही अनन्यगति, अनन्य प्रियतम, अनन्य साध्य और अनन्य साधन मानने वाले) होकर, अनन्य भक्ति योग के द्वारा निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मुझको ही भजते हैं; अर्जुन! उन मुझमें आविष्ट चित्त प्रेमी भक्तों का मृत्यु रूप संसार सागर से मैं शीघ्र ही समुद्धार (भली भाँति पार) करने वाला होता हूँ (उन्हें अपने साधन बल पर प्रयास करके-तैरकर संसार समुद्र पार नहीं करना पड़ता। मैं अखिल-सौन्दर्य-माधुर्य-निधि स्वयं अपने साथ उन्हें सुखमय सुदृढ़ कृपापोत पर चढ़ा कर तुरंत ही पार उतार देता हूँ)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान् का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो इस प्रकार के साधन सम्पन्न हो तो वे भी मुझको ही प्राप्त होते हैं, पर वे मेरे ब्रह्मस्वरूप से अभिन्नता प्राप्त करते हैं। मुझ दिव्य साकार सगुण मंगल विग्रह की सेवा उन्हें नहीं प्राप्त होती और उनकी इस सफलता का दायित्व भी उन्हीं पर है, मैं उन्हें संसार सागर से पार नहीं करता।
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज