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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
एकादश अध्याय
आपकी इस महिमा को न जानने वाले मुझ मूढ़ के द्वारा-‘आप मेरे सखा हैं’-ऐसा मानकर प्रेमवश या प्रमाद से जो ‘हे यादव! हे कृष्ण! हे सखे’- इस प्रकार अविनयपूर्वक बिना सोचे-समझे कहा गया है और अच्युत! परिहास (विनोद)-के लिये चलते, सोते, बैठते और भोजन करते समय अकेले में अथवा उन सखाओं के सामने आप जो तिरस्कृत किये गये हैं, वह सारा अपराध आप अप्रेमय स्वरूप (अचिन्त्य महिमामय) परमेश्वर से मैं क्षमा करवाता हूँ। आप इस चराचर लोक के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं परम पूज्यनीय हैं, अनुपम प्रभावशाली! तीनों लोकों में आपके आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है (फिर आप से) बढ़कर तो कैसे हो सकता है? अतएव प्रभो! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर से प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। देव! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और स्वामी जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं- क्षमा करते हैं-वैसे ही आपको भी मेरे अपराध सहन करते हैं-क्षमा करते हैं-वैसे ही आपको भी मेरे अपराध सहन (क्षमा) करने उचित हैं। पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्य मय रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा है। इसलिये आप उस अपने चतुर्भुज रूप को ही मुझे दिखलाइये। देवेश! जगन्निवास! प्रसन्न होइये। मैं आपको वैसे ही मुकुट धारण किये हुए, गदा और चक्र हाथ में लिये हुए देखना चाहता हूँ। विश्वरूप! सहस्र बाहो! आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट होइये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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