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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
एकादश अध्याय
अर्जुन बोले- देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को, अनेक भूतों के विभिन्न समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को और समस्त ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ। सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन्! आपको मैं अनेक भुजा, उदर, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देख रहा हूँ। विश्वरूप! मैं न आपके अन्त को देख पाता हूँ, न मध्य को और न आदि को ही। आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त, चक्रयुक्त तथा सब ओर से देदीप्यमान तेज के पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयरूप देख रहा हूँ। आप ही जानने योग्य परम अक्षर (परब्रह्म परमात्मा) हैं, आप ही इस विश्व के परम निधान हैं, आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं, ऐसा मेरा मत है। आपको आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त सामर्थ्य से युक्त, अनन्त भुजावाले, चन्द्र-सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्निरूप मुखवाले और अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देख रहा हूँ। महात्मन! यह द्युलोक और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सारी दिशाएँ एक आप से ही व्याप्त हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक अत्यन्त व्यथित हो रहे हैं। ये देवताओं के समूह आप में प्रवेश कर रहे हैं, कितने ही भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुणों का गान कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धों के समुदाय ‘कल्याण हो’ ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपका स्तवन कर रहे हैं। जो (ग्यारह) रुद्र, (बारह) आदित्य, (आठ) वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, (दोनों) अश्विनी कुमार तथा (उनचास) मरुद्गण, पितरों का समुदाय, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सब-के-सब विस्मित होकर आपको देख रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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