विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दशम अध्याय
मैं अक्षरों में अकार और समासों में ‘द्वन्द्व’ नामक समास हूँ। मैं ही अक्षय काल (काल का भी महाकाल) तथा सब ओर मुखवाला विराट् स्वरूप और सबका धारण-पोषण करने वाला हूँ। मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु हूँ। नारियों में मैं कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ। मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम, छन्दों में गायत्री, महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसन्त हूँ। मैं छल करने वालों में जूआ, तेजस्वी पुरुषों का तेज, जीतने वालों की विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय और सत्वशीलों का सत्व है। मैं वृष्णि वंशियों में वासुदेव (वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण स्वयं तेरा सखा), पाण्डवों में (तू) धनंजय हूँ। मुनियों में वेदव्यास और कवियों में उशना कवि (शुक्राचार्य) भी मैं ही हूँ। मैं दमन करने वालों में दण्ड (दमन करने की शक्ति) हूँ, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञान वानों का तत्व ज्ञान मैं ही हूँ। और अर्जुन! जो भी सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह सब मैं ही हूँ; ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मेरे बिना हो। परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तुझे संक्षेप से कहा है। जो-जो भी विभूति युक्त (ऐश्वर्ययुक्त) कान्ति युक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान। अथवा अर्जुन! इस बहुत जानने से तुझे क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रकरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज