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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टम अध्याय
पार्थ! यह नियम है कि भगवान् के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्य दिव्य परम पुरुष परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्द घन परमेश्वर का स्मरण करता है, वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल में भी योग बल से भृकृटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यस्वरूप परम पुरुष परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। वेद के जानने वाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दघन रूप परम पद को ‘अक्षर’ अविनाशी कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील संन्यासी महात्मा गण जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं; उस परम पद को मैं तेरे लिये संक्षेप में कहूँगा। सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्मा सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ऊँ’ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरा स्मरण करता हुआ, शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष मुझ में अनन्यचित्त होकर नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ (उसे अनायास ही प्राप्त हो जाता हूँ)। परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दुःखों के घर एवं अनित्य पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। अर्जुन! ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी लोक पुनरावर्ती हैं, परंतु कुन्तीपुत्र! मुझे प्राप्त कर लेने पर फिर जन्म नहीं होता (क्योंकि मैं कालातीत नित्य हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल के द्वारा सीमित होने के कारण अनित्य हैं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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