मीराँबाई की पदावली
मीराँबाई की रचनायें
मीराँबाई की प्राथमिक शिक्षा मेड़ते में पुर्ण हुई थी और अनुमान किया जाता है कि , अन्य आवश्यक बातों के साथ-साथ उन्हें, समयानुसार, काव्य-कला एवं संगीतादि के अभ्यास का भी अवसर मिला था; मेवाड़ का राजवंश उन दिनों, प्रसिद्ध संगीत व साहित्यादि के प्रेमी विद्वान महाराणा कुंभ के कारण, पुरा विख्यात हो चुका था, अतएव अपनी ससुराल में भी उन्हें, यथासम्भव, अपनी योग्यता के विकास के लिए अनूकूल वातावरण प्राप्त होता गया। जहाँ तक पता है, कुँवर भोजराज ने अपने जीवन-काल में इनके उत्साह में किसी प्रकार की बाधा नही पहुँचाई और, उनके मरणोपंरात भी, अपने कठोर वैधव्य को सहन करने में इन साधनों से वे बराबर सहायता लेती रहीं। मीराँबाई ने कदाचित इसी काल में, अपनी कुल उपलब्ध रचनायें प्रस्तुत की थी और अधिकाश पदों को, अपने इष्टदेव के समक्ष गा-गा कर उन्हें रिझाने की चेष्टा भी की थी। मीराँबाई की रचनाओं में से निम्नलिखित के नाम लिये जाते है विवरण है- 1. नरसीजी रो माहेरो- अथवा नरसीजी का माहिरा व मायरा-कहते है कि यह पदों मे लिखा गया एक ग्रंथ है जिसमें विषय का वर्णन मीराँ की किसी मिथुला नामक सखी को संबोधित करके किया गया है। प्रश्नोत्तर में यत्र-तत्र दासी उवाज मीराँ उवाच शब्द भी आये है। इनकी, कदाचित, अभी तक कोई प्राचीन प्रामाणिक प्रति पुरी नहीं मिल पाई है। और न उपलब्ध अंशों के पढ़ने वाले इसे साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपुर्ण ही मानते है। ग्रन्थ का विषय प्रसिद्ध भक्त नरसी मेहता के माहेरा वा भात भरने की कथा का वर्णन है। माहेरा राजस्थान और गुजरात की एक लोकप्रिय प्रथा है। लड़की व बहन के घर, जब उसकी संतान का विवाह होता है तो, पिता व भाई पहरावनी ले जाते है, उसी का नाम माहेरा है। नरसी का माहेरा उनकी पुत्री नानीबाई के यहाँ हुआ था। बोल-चाल की राजस्थानी भाषा में इसी विषय पर एक और भी प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो किसी लकड़हारे की पुरानी रचना समझ जाता है। ‘माहेरों’ के आदि मध्य एवम् अन्त के कुछ पद परिशिष्ट-ग’ में उद्धत हैं। 2. गीत गोविन्द की टीका-इस ग्रंथ का अभी तक कहीं पता नहीं चला है, अतएव, कुछ लोगों की धारणा है कि, सम्भवतः, महाराणा कुंभ द्वारा रचित प्रसिद्ध ‘रसिकप्रिया टीका’ को ही मीराँ की रचना समझ लिया गया है। मीराँ की ऐसी कोई स्वतंत्र रचना नहीं है। 3. राग गोविन्द-इस ग्रंथ के अस्तित्व के विषय में भी अभी तक संदेह है गोकि म. म. गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार मीरों ने इस नाम से ‘कविता का एक ग्रंथ’ रचा था। 4. सोरठ के पद-मिश्रबंधुओं न इसकी चर्चा की है। इसका भी पता नहीं चलता। 5. मीराँबाई का मलार- श्री ओझाजी ने लिखा है कि यह ‘‘ राग अब तक प्रचलित है और बहुत प्रसिद्ध है।’’ यह कदाचित् कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। 6. गर्वागीत- श्री के. एम्. झावेरी ने बहुत से गुजरात में प्रचलित ‘गर्वा गीतों’ को मीराँ रचित माना है। ‘गर्वा’ गीत रासमंडली के गीत की भाँति गाये जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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