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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
अथ षोड़ष: सन्दर्भ:
16. गीतम्
अमृत-मधुर-मृदुतर-वचनेन । अनुवाद- अति सुमधुर तथा कोमलतर वचन बोलने वाले श्रीकृष्ण से जो वनिता रमिता हुई है, उसे मलय-पवन के संपर्क से कभी ज्वाला का अनुभव नहीं हो सकता है। बालबोधिनी- सखि! वे अपनी अमृतमयी कोमल और मधुर वाणी से उस रमणीया को लुभा रहे हैं। वह कैसे जानेगी कि मलयाचल से चलने वाली दक्षिणी बयार से कैसी ज्वालाएँ उद्भूत होती हैं? कैसी दाहक ज्वलनशील पीड़ा होती है? जो विरहिणियों को सन्तप्त करती है। अथवा निन्दापरक अर्थ में श्रीकृष्ण ने जिस गोपिका के साथ रमण नहीं किया, अपितु अमृतमयी मृदु मधुर वाणी से लुभाते रहे, वह रमणी क्या मलयानिल से सन्तप्त नहीं हुई होगी? अवश्य ही हुई होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- अमृत-मधुर-मृदुतर-वचनेन (अमृतादपि मधुरं मृदुतरं कोमलतरञ्च वचनं यस्य तेन) वनमालिना या रमिता सा मलयज-पवनेन (मलयानिलेन) न ज्वलति। [अमृतसिक्तया ज्वालातिशयानुपपत्ते:]। [पक्षान्तरे या अरमिता सा मलयजपवने न ज्वलति इति न, अपि तु ज्वलत्येव] ॥3॥
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