गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 186

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्

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पद्यानुवाद
वह विरह विदग्धा दीना
माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना।
वह विरह विदग्धा दीना
चन्दन और चन्द्र-किरणों से होती अधिक अधीर,
अहिगण गरल समान विमूर्च्छित करना मलय समीर।
वह विरह विदग्धा दीना
माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना।

बालबोधिनी- सखी श्रीकृष्ण के सन्निकट उनकी विरहवेदना सुनाती है। वह कहती है कि श्रीराधा अत्यन्त दु:खित हैं। कामबाण के त्रास से आपका ध्यान करती हुई आप ही में समाधिस्थ हो गयी हैं। बाण के भय से जैसे प्राणी रक्षार्थ दूसरे की शरण में चला जाता है, उसी प्रकार वह आपके शरणापन्ना हुई हैं क्योंकि आप कामस्वरूप हैं, आपके प्रसन्ना होने पर किसी का भय नहीं रहता है। हे माधव! आपके विरह में श्रीराधा की ऐसी स्थिति हो गई है कि अपने शरीर में लगे हुए चन्दन की निन्दा करती हैं, क्योंकि यह चन्दन उनके लिए आट्टादकारी नहीं अपितु प्रदाह रूप है। चन्द्र-किरणों को देखकर भी उनका हृदय प्रज्वलित होने लगता है क्योंकि चन्द्रिका भी उनकी कामाग्नि को उद्दीपित कर रही है। चन्दन वृक्ष के सम्पर्क से मलय-पवन को भी वह गरलवत्र अनुभव करती हैं। मलयाचल के चन्दन वृक्षों से लिपटे हुए विषैले सर्पों की फुत्कारों से वायु दूषित हो गयी है।

'मनसिज-विशिख-भयादिव' में उत्प्रेक्षा अलंकार का सौष्ठव है, साथ ही इस श्लोक में रूपक और विरोधालंकारों की भी संसृष्टि है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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