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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:
अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्
तानि स्पर्श-सुखानि ते च तरला: स्निग्धा दृशोर्विभ्रमा- अनुवाद- एकान्त में प्रिया का ध्यान करते हुए मैं इसके उसी सुविमल स्पर्शजनित सुख का अनुभव कर पुलकित हो रहा हूँ, उसके नयनयुगल की चञ्चलता, सुस्निग्ध भंगिमा, विभ्रमता और दृष्टिक्षेपता मुझे संजीवित कर रही है, उसके मुखारविन्द का सौरभ मुझे आप्लावित कर रहा है, उसकी उस अमृत निस्यन्दी वचन-परम्परा की वक्रिमा को श्रवण कर रहा हूँ। उसके बिम्बफल सदृश मनोहर अधर का मधुर सुधारस का मैं आस्वादन कर रहा हूँ। उसमें समाधिस्थ मेरे मन की विषयासक्ति बनी हुई है, फिर भी मुझमें विरह व्याधि की यातना अधिकाधिकरूप में क्यों बढ़ती जा रही है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- तानि (पूर्वानुभूतानीत्यर्थ:) स्पर्शसुखानि (अंगस्पर्श-जनितानि सुखानि) [एतेन त्वगिन्द्रिय-विषयास: प्राप्त:]; ते च (पूर्वानुभूता:) तरला: (चञ्चला:) स्निग्धा: (स्नेहवर्षिण:) दृशो: (चक्षुषो:) विभ्रमा: (विलासा:) [एतेन चक्षुरिन्द्रिय-विषयासंगलाभ:]; तद्वक्त्राम्बुज-सौरभं (तत् पूर्वानुभूतं वक्त्रमेव अम्बुजं तस्य सौरभं) [एतेन घ्राणेन्द्रिय-विषयासंग उक्त:]; स च (पूर्वानुभूत:) सुधास्यन्दी (अमृतस्रावी) गिरां (वाचां) वक्रिमा (वक्रता भंगिविशेष इत्यर्थ:) [एतेन श्रवणेन्द्रिय-विषयासक्ति: सूचिता]; सा च विम्बाधर-माधुरी (विम्बाधरस्य माधुरी मधुरता) [एतेन रसनेन्द्रिय-विषयासक्ति: सूचिता]; सा च विम्बाधर-माधुरी (विम्बाधरस्य माधुरी मधुरता) [एतेन रसनेन्द्रिय-विषयासंग: प्राप्त:]। इति (एवं) विषयासंगेऽपि (विषयेषु आसंगे व्यासक्तौ अपि) [मम] मानसं तस्यां (राधायां) लग्नसमाधि (लग्न: समाधिरेकाग्रता यस्य तादृशं देकासक्तमित्यर्थ:) हस्त (खेदे) विरहव्याधि: (विच्छेदयन्त्रणा) कथं वर्द्धते [वियुक्तयोरेव विरह: स्यात् अत्र मनस: संयोगोवर्त्तते तत्कथमियं यातना इत्यभिप्राय:] ॥13॥
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