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'''बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी ॥30॥''' | '''बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी ॥30॥''' | ||
− | '''यया | + | '''यया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च ।''' |
'''अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ॥31॥''' | '''अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ॥31॥''' | ||
− | ''' | + | '''अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।''' |
'''सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी ॥32॥'''</poem> | '''सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी ॥32॥'''</poem> | ||
01:22, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टादश अध्याय
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु । धनंजय! अब तू बुद्धि के और धृति के भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार के भेद मेरे द्वारा विभाग पूर्वक कहे हुए सुन। पार्थ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, कर्तव्य और अकर्तव्य, भय और अभय तथा बन्धन और मोक्ष को यथार्थरूप से जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है। पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी ठीक-ठीक नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है। पार्थ! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सब पदार्थों को भी (हानि को लाभ, अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र आदि रूप से) विपरीत मानती है, वह बुद्धि तामसी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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