ज्ञानी न डाले भेद, कर्मासक्त की मति में कभी।
वह योग-युत हो कर्म कर, उनसे कराये फिर सभी॥26॥
होते प्रकृति के ही गुणों से सर्व कर्म विधान से।
मैं कर्म करता, मूढ़-मानव मानता अभिमान से॥27॥
गुण और कर्म विभाग के, सब तत्त्व जो जन जानता।
होता न वह आसक्त, गुण का खेल गुण में मानता॥28॥
गुण कर्म में आसक्त होते, प्रकृतिगुण मोहित सभी।
उन मंद मूढ़ों को करे, विचलित न ज्ञानी जन कभी॥29॥
अध्यात्म-मति से कर्म अर्पण कर मुझे आगे बढ़ो।
फल-आश ममता छोड़कर, निश्चिन्त होकर फिर लड़ो॥30॥