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<h4 style="text-align:center">'''युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध'''</h4> | <h4 style="text-align:center">'''युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध'''</h4> | ||
− | पाँचों भूत, मन, बुद्धि और अहंकार, चारों प्रकार के प्राणी [[श्रीकृष्ण]] में ही स्थित हैं। केवल इस ब्रह्माण्ड में ही नहीं, सब ब्रह्माण्डों में एक श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम हैं। उनके एक-एक रोमकृप में असंख्य-असंख्य ब्रह्माण्ड समुद्र की तरंग में सीकर-कणों की भाँति उत्पन्न होते और विलीन होते रहते हैं। शिशुपाल अभी बालक है, श्रीकृष्ण के तत्व और महत्तव को नहीं जानता। जाने ही कैसे, उसने कभी इसके लिये चेष्टा नहीं की है। मैं जानना चाहता हूँ कि सभा में [[शिशुपाल]] के अतिरिक्त और कौन ऐसा है जो श्रीकृष्ण की पूजा नहीं चाहता? मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि हमने श्रीकृष्ण की पूजा की है। यदि कोई इसे अनुचित समझता है तो समझा करे: जो करना चाहता है, सो कर ले।' | + | पाँचों भूत, मन, बुद्धि और अहंकार, चारों प्रकार के प्राणी [[श्रीकृष्ण]] में ही स्थित हैं। केवल इस [[ब्रह्माण्ड]] में ही नहीं, सब ब्रह्माण्डों में एक [[श्रीकृष्ण]] ही पुरुषोत्तम हैं। उनके एक-एक रोमकृप में असंख्य-असंख्य ब्रह्माण्ड समुद्र की तरंग में सीकर-कणों की भाँति उत्पन्न होते और विलीन होते रहते हैं। [[शिशुपाल]] अभी बालक है, श्रीकृष्ण के तत्व और महत्तव को नहीं जानता। जाने ही कैसे, उसने कभी इसके लिये चेष्टा नहीं की है। मैं जानना चाहता हूँ कि सभा में [[शिशुपाल]] के अतिरिक्त और कौन ऐसा है जो श्रीकृष्ण की पूजा नहीं चाहता? मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि हमने श्रीकृष्ण की पूजा की है। यदि कोई इसे अनुचित समझता है तो समझा करे: जो करना चाहता है, सो कर ले।' |
− | [[भीष्म]] की बात समाप्त होने पर सहदेव ने कहा-'हमने श्रीकृष्ण की पूजा की है और सर्वथा उचित की है। जिन्हें वह असह्य हुई हो, उनके सिर पर मैं पैर रखता हूँ। यदि उनमें शक्ति हो तो वे आगे आकर मुझसे निपट लें?' सहदेव की बात का किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। आकाश से पुष्पों की वृष्टि होने लगी। देवता लोग साधु-साधु कहकर सहदेव को धन्यवाद देने लगे। त्रिकालदर्शी देवर्षि नारद ने उठकर सबके आगे स्पष्ट शब्दों में कहा-'जो मनुष्य होकर भी कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण की आराधना नहीं करते, वे जीवित होने पर भी मृतक के समान हैं। उनसे बात भी नहीं करनी चाहिये?' यज्ञ का कार्य आगे चला, दूसरे राजाओं की पूजा होने लगी। शिशुपाल वहाँ से अलग जाकर राजाओं से सलाह करने लगा कि अभी लड़ाई छेड़कर इनके यज्ञ में विघ्न डाल दिया जाये। कुछ राजा लोग उससे मिल भी गये। थोड़ी देर तक कोलाहल-सा मच गया। | + | [[भीष्म]] की बात समाप्त होने पर [[सहदेव]] ने कहा-'हमने श्रीकृष्ण की पूजा की है और सर्वथा उचित की है। जिन्हें वह असह्य हुई हो, उनके सिर पर मैं पैर रखता हूँ। यदि उनमें शक्ति हो तो वे आगे आकर मुझसे निपट लें?' सहदेव की बात का किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। [[आकाश]] से पुष्पों की वृष्टि होने लगी। देवता लोग साधु-साधु कहकर सहदेव को धन्यवाद देने लगे। त्रिकालदर्शी [[देवर्षि नारद]] ने उठकर सबके आगे स्पष्ट शब्दों में कहा-'जो मनुष्य होकर भी कमलनयन [[भगवान श्रीकृष्ण]] की आराधना नहीं करते, वे जीवित होने पर भी मृतक के समान हैं। उनसे बात भी नहीं करनी चाहिये?' यज्ञ का कार्य आगे चला, दूसरे राजाओं की पूजा होने लगी। शिशुपाल वहाँ से अलग जाकर राजाओं से सलाह करने लगा कि अभी लड़ाई छेड़कर इनके यज्ञ में विघ्न डाल दिया जाये। कुछ राजा लोग उससे मिल भी गये। थोड़ी देर तक कोलाहल-सा मच गया। |
− | उस समय [[युधिष्ठिर]] ने भीष्म पितामह के पास जाकर पूछा-'पितामह! बहुत-से राजा शिशुपाल के भड़काने से क्रुद्ध होकर युद्ध करने पर उतारु हो गये हैं। इस समय मुझे क्या करना चाहिये? आप विचार करके कुछ ऐसा उपाय बतावें, जिससे यज्ञ में विघ्न न हो और सारी प्रजा का हित हो।' भीष्म पितामह ने कहा-'युधिष्ठिर! चिन्ता करने का कोई कारण नहीं है, तुम्हारा मार्ग निष्कण्टक है। इस विषय में क्या करना होगा, सो मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है। जैसे सिंह को सोते देखकर कुत्ते भों-भों करते हैं और उसको उठा हुआ देखकर भाग जाते हैं, वैसे ही जब तक श्रीकृष्ण चुपचाप हैं, तभी तक ये लोग बहक रहे हैं। | + | उस समय [[युधिष्ठिर]] ने भीष्म पितामह के पास जाकर पूछा-'पितामह! बहुत-से [[शिशुपाल|राजा शिशुपाल]] के भड़काने से क्रुद्ध होकर युद्ध करने पर उतारु हो गये हैं। इस समय मुझे क्या करना चाहिये? आप विचार करके कुछ ऐसा उपाय बतावें, जिससे यज्ञ में विघ्न न हो और सारी प्रजा का हित हो।' भीष्म पितामह ने कहा- '[[युधिष्ठिर]]! चिन्ता करने का कोई कारण नहीं है, तुम्हारा मार्ग निष्कण्टक है। इस विषय में क्या करना होगा, सो मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है। जैसे सिंह को सोते देखकर कुत्ते भों-भों करते हैं और उसको उठा हुआ देखकर भाग जाते हैं, वैसे ही जब तक [[श्रीकृष्ण]] चुपचाप हैं, तभी तक ये लोग बहक रहे हैं। |
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16:47, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वधपाँचों भूत, मन, बुद्धि और अहंकार, चारों प्रकार के प्राणी श्रीकृष्ण में ही स्थित हैं। केवल इस ब्रह्माण्ड में ही नहीं, सब ब्रह्माण्डों में एक श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम हैं। उनके एक-एक रोमकृप में असंख्य-असंख्य ब्रह्माण्ड समुद्र की तरंग में सीकर-कणों की भाँति उत्पन्न होते और विलीन होते रहते हैं। शिशुपाल अभी बालक है, श्रीकृष्ण के तत्व और महत्तव को नहीं जानता। जाने ही कैसे, उसने कभी इसके लिये चेष्टा नहीं की है। मैं जानना चाहता हूँ कि सभा में शिशुपाल के अतिरिक्त और कौन ऐसा है जो श्रीकृष्ण की पूजा नहीं चाहता? मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि हमने श्रीकृष्ण की पूजा की है। यदि कोई इसे अनुचित समझता है तो समझा करे: जो करना चाहता है, सो कर ले।' भीष्म की बात समाप्त होने पर सहदेव ने कहा-'हमने श्रीकृष्ण की पूजा की है और सर्वथा उचित की है। जिन्हें वह असह्य हुई हो, उनके सिर पर मैं पैर रखता हूँ। यदि उनमें शक्ति हो तो वे आगे आकर मुझसे निपट लें?' सहदेव की बात का किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। आकाश से पुष्पों की वृष्टि होने लगी। देवता लोग साधु-साधु कहकर सहदेव को धन्यवाद देने लगे। त्रिकालदर्शी देवर्षि नारद ने उठकर सबके आगे स्पष्ट शब्दों में कहा-'जो मनुष्य होकर भी कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण की आराधना नहीं करते, वे जीवित होने पर भी मृतक के समान हैं। उनसे बात भी नहीं करनी चाहिये?' यज्ञ का कार्य आगे चला, दूसरे राजाओं की पूजा होने लगी। शिशुपाल वहाँ से अलग जाकर राजाओं से सलाह करने लगा कि अभी लड़ाई छेड़कर इनके यज्ञ में विघ्न डाल दिया जाये। कुछ राजा लोग उससे मिल भी गये। थोड़ी देर तक कोलाहल-सा मच गया। उस समय युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह के पास जाकर पूछा-'पितामह! बहुत-से राजा शिशुपाल के भड़काने से क्रुद्ध होकर युद्ध करने पर उतारु हो गये हैं। इस समय मुझे क्या करना चाहिये? आप विचार करके कुछ ऐसा उपाय बतावें, जिससे यज्ञ में विघ्न न हो और सारी प्रजा का हित हो।' भीष्म पितामह ने कहा- 'युधिष्ठिर! चिन्ता करने का कोई कारण नहीं है, तुम्हारा मार्ग निष्कण्टक है। इस विषय में क्या करना होगा, सो मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है। जैसे सिंह को सोते देखकर कुत्ते भों-भों करते हैं और उसको उठा हुआ देखकर भाग जाते हैं, वैसे ही जब तक श्रीकृष्ण चुपचाप हैं, तभी तक ये लोग बहक रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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