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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारीदिन बीतते देर नहीं लगती। ऐसा मालूम होता है कि सुख के दिन तो इतने जल्दी बीतते हैं कि जान ही नहीं पड़ता कि कब बीत गये। इसी प्रकार दु:ख के दिन भी बीत जाते हैं, परंतु ऐसा जान पड़ता है कि वे जल्दी नहीं बीत रहे हैं। जब दैवी सम्पत्ति वाले लोग सुखी होते हैं, तब आसुरी सम्पत्ति वालों के मन में स्वाभाविक ही द्धेष होता है। तनिक-सा निमित्त पा जाने पर वे उनके महान शत्रु हो जाते हैं। दैवी सम्पत्ति वालों के मन में किसी के प्रति द्धेष् नहीं होता, वे किसी का अनिष्ट नहीं करना चाहते। यही कारण है कि पहले बाधा-विघ्न पड़ने पर भी उनका सुख स्थायी होता है और आसुरी सम्पत्ति वाले कभी सुखी हो ही नहीं सकते। वे कभी-कभी सुखी-से मालूम पड़ते हैं; परंतु वास्तव में उनके हृदय में अशान्ति की ज्वाला धधकती रहती है। दैवी सम्पत्ति वाले कल्पभर का स्वर्गीय सुख क्षण भर की भाँति बिता देते हैं और आसुरी सम्पत्ति वाले अपने नरक को अपरिमित काल तक भोगते रहते हैं। उनके लिये वह थोड़ा-सा समय भी बहुत लम्बा हो जाता है। पाण्डवों का यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ। उन्होंने उस यज्ञ के द्वारा बड़ी ही पवित्रता और शान्ति के साथ भगवान् की पूजा की। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या-द्धेष नहीं था। यहाँ तक कि दुर्योधन आदि को भी उस यज्ञ में बड़ा ऊँचा और सम्मान का पद दिया गया था, परंतु दुर्योधन आदि के मन में यह सब देखकर प्रसन्नता नहीं हुई। उसके हृदय की जलन और भी बढ़ गयी। वे गुटबंदी करके सोचने लगे कि किस प्रकार पाण्डवों की सम्पत्ति हड़प ली जाये। शकुनि की सलाह से जुआ खेलना निश्चय हुआ और धृतराष्ट्र से बलात् अनुमति लेकर उन्होंने पाण्डवों को बुलवाया। जुआ हुआ। शकुनि की चालाकी से पाण्डव न केवल अपनी धन-सम्पत्ति हार गये, बल्कि अपने-आपको और अपनी धर्मपत्नी तक को हार गये। उनके हार जाने पर भी कौरवों को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने रजस्वला द्रौपदी को भरी सभा में नग्न करने की चेष्टा की। भगवान् की कृपा से उसकी रक्षा हुई। उस समय वहाँ का वायुमण्डल इतना दूषित हो गया था कि द्रौपदी के बार-बार पूछने पर भी किसी ने उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया। कई ने अपने मुँह फेर लिये और भीष्म ने भी कुछ स्पष्ट उत्तर न देकर युधिष्ठिर पर ही टाल दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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