"हरिगीता अध्याय 3:31-35" के अवतरणों में अंतर

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जो दोष- बुद्धि विहीन मानव नित्य श्रद्धायुक्त हैं।
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जो दोष-बुद्धि विहीन मानव, नित्य श्रद्धायुक्त हैं।
मेरे सुमत अनुसार करके कर्म वे नर मुक्त हैं॥31॥
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मेरे सुमत अनुसार, करके कर्म वे नर मुक्त हैं॥31॥
  
जो दोष- दर्शी मूढ़मति मत मानते मेरा नहीं।
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जो दोष-दर्शी मूढ़मति मत, मानते मेरा नहीं।
वे सर्वज्ञान- विमूढ़ नर नित नष्ट जानों सब कहीं॥32॥
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वे सर्वज्ञान-विमूढ़ नर, नित नष्ट जानों सब कहीं॥32॥
  
वर्ते सदा अपनी प्रकृति अनुसार ज्ञान- निधान भी।
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वर्ते सदा अपनी प्रकृति अनुसार ज्ञान-निधान भी।
 
निग्रह करेगा क्या, प्रकृति अनुसार हैं प्राणी सभी॥33॥
 
निग्रह करेगा क्या, प्रकृति अनुसार हैं प्राणी सभी॥33॥
  
अपने विषय में इन्द्रियों को राग भी है द्वेष भी।
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अपने विषय में इन्द्रियों को, राग भी है, द्वेष भी।
 
ये शत्रु हैं, वश में न इनके चाहिये आना कभी॥34॥
 
ये शत्रु हैं, वश में न इनके चाहिये आना कभी॥34॥
  
ऊँचे सुलभ पर- धर्म से निज विगुण धर्म महान् है।
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ऊँचे सुलभ पर-धर्म से निज विगुण धर्म महान् है।
 
परधर्म भयप्रद, मृत्यु भी निज धर्म में कल्याण है॥35॥
 
परधर्म भयप्रद, मृत्यु भी निज धर्म में कल्याण है॥35॥
 
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18:53, 1 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 3 पद 31-35

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जो दोष-बुद्धि विहीन मानव, नित्य श्रद्धायुक्त हैं।
मेरे सुमत अनुसार, करके कर्म वे नर मुक्त हैं॥31॥

जो दोष-दर्शी मूढ़मति मत, मानते मेरा नहीं।
वे सर्वज्ञान-विमूढ़ नर, नित नष्ट जानों सब कहीं॥32॥

वर्ते सदा अपनी प्रकृति अनुसार ज्ञान-निधान भी।
निग्रह करेगा क्या, प्रकृति अनुसार हैं प्राणी सभी॥33॥

अपने विषय में इन्द्रियों को, राग भी है, द्वेष भी।
ये शत्रु हैं, वश में न इनके चाहिये आना कभी॥34॥

ऊँचे सुलभ पर-धर्म से निज विगुण धर्म महान् है।
परधर्म भयप्रद, मृत्यु भी निज धर्म में कल्याण है॥35॥

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