श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्याययस्माद् निर्दोषं समं ब्रह्म आत्मा तस्मात्- क्योंकि निर्दोष और सम ब्रह्म ही आत्मा है, इसलिए- न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । न प्रहृष्येद् न प्रहर्ष कुर्यात् प्रियम् इष्टं प्राप्य लब्ध्वा, न उद्विजेत् प्राप्य एव च अप्रियम् अनिष्टं लब्ध्वा। देहमात्रात्मदर्शिनां हि प्रियाप्रियप्राप्ती हर्ष विषादस्थाने न केवलात्मदर्शिनः तस्य प्रियाप्रियप्राप्त्यसम्भवात्। किं च सर्वभूतेषु एकः समो निर्दोष आत्मा इति स्थिरा निर्विचिकित्सा बुद्धिः यस्य स स्थिरबुद्धिः असम्मूढः सम्मोहवर्जितः च स्याद् यथोक्तो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः अकर्मकृत् सर्वकर्मसन्न्यासी इत्यर्थः।।20।। प्रिय वस्तु को प्राप्त करके तो हर्षित न हो अर्थात् इष्टवस्तु पाकर तो हर्ष न माने और अप्रिय- अनिष्ट पदार्थ के मिलने पर उद्वेग न करे। क्योंकि देहमात्र में आत्मबुद्धि वाले पुरुष को ही प्रिय की प्राप्ति हर्ष देने वाली और अप्रिय की प्राप्ति शोक उत्पन्न करने वाली हुआ करती है, केवल उपाधिरहित आत्मा का साक्षात् करने वाले पुरुष को नहीं। कारण, उसके लिए (वास्तव में) प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति असम्भव है। सब भूतों में आत्मा एक है, सम है और निर्दोष है, ऐसी संशय रहित बुद्धि जिसकी स्थिर हो चुकी है और जो मोह- अज्ञान से रहित है, वह स्थिर बुद्धि ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म मे ही स्थित है। अर्थात् वह कर्म न करने वाला- सर्व कर्मों का त्यागी ही है।।20।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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