श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायदेहे एव आस्ते इति अस्ति एव विशेषणफलं विद्वदविद्वत्प्रत्ययभेदापेक्षात्वात्। यद्यपि कार्यकरणकर्माणि अविद्यया आत्मनि अध्यारोपितानि सन्न्यस्य आस्ते इति उक्तं तथापि आत्मसमवायि तु कर्तृत्वं कारयितृत्वं च स्याद् इति आशंक्य आह- न एव कुर्वन् स्वयं न कार्यकरणानि कारयन् क्रियासु प्रवर्तयन्। अतः ज्ञानी और अज्ञानी की प्रतीति के भेद की अपेक्षा से ‘देहे एव आस्ते’ इस विशेषण का फल अवश्य ही है। यद्यपि ‘कार्य, करण और कर्म जो अविद्या से आत्मा में आरोपित हैं उन्हें छोड़कर रहता है’ ऐसा कहा है तथापि आत्मा से नित्य संबंध रखने वाले कर्तापन और कराने की प्रेरकता- ये दोनों भाव तो उस (आत्मा) में रहेंगे ही। इस शंका पर कहत हैं- स्वयं न करता हुआ और शरीर- इन्द्रियों से न करवाता हुआ अर्थात् उनको कर्मों में प्रवृत्त न करता हुआ (रहता है)। किं यत् तत् कर्तृत्वं कारयितृत्वं च देहिनः स्वात्मसमवायि सत् सन्न्यासाद् न भवति यथा गच्छतो गतिः गमनव्यापारपरित्यागे न स्यात् तद्वत्, किं वा स्वत एव आत्मनो नास्ति इति। अत्र उच्यते न अस्ति आत्मनः स्वतः कर्तृत्वं कारयितृत् च। उक्तं हि- ‘अविकार्योऽयमुच्यते’ ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ इति। ‘ध्यायतीव लेलायतीव’ [1] इति च श्रुतेः।।13।। पू.- जैसे गमन करने वाले की गति गमन रूप व्यापार का त्याग करने से नहीं रहती, वैसे ही आत्मा में जो कर्तृत्व और कारयितृत्व हैं वह क्या आत्मा के नित्य संबंधी होते हुए ही संन्यास से नहीं रहते? अथवा स्वभाव से ही आत्मा में नहीं हैं? उ.- आत्मा में कर्तृत्व और कारयितृत्व स्वभाव से ही नहीं हैं; क्योंकि ‘यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है।’ ‘हे कौन्तेय! यह आत्मा शरीर में स्थित हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।’ ऐसा कह चुके हैं एवं ‘ध्यान करता हुआ-सा, क्रिया करता हुआ सा।’ इस श्रुति से भी यही सिद्ध होता है।।13।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (बृ. उ. 4।3।4)
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