श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायजब यह पुरुष सम्यक् ज्ञान प्राप्ति के उपाय रूप- योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: । योगेन युक्तो योगयुक्तो विशुद्धात्मा विशुद्धसत्वो विजितात्मा विजितदेहो जितेन्द्रियः च, सर्वभूतात्मभूतात्मा सर्वेषां ब्रह्मादीनां स्तम्बपर्यन्तानां भूतानाम् आत्मभूत आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य स सर्वभूतात्मभूतात्मा सम्यग्दर्शी इत्यर्थः। स तत्र एवं वर्तमानो लोकसंङ्ग्रहाय कर्म कुर्वन् अपि न लिप्यते न कर्मभिः बध्यते इत्यर्थः।।7।। न च असौ परमार्थतः करोति अतः- योग से युक्त, विशुद्ध अंतःकरणवाला, विजितात्मा शरीर विजयी, जितेन्द्रिय और सब भूतों में अपने आत्मा को देखने वाला अर्थात् जिसका अन्तरात्मा ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त संपूर्ण भूतों का आत्मरूप हो गया है; ऐसा यथार्थ ज्ञानी हो जाता है। तब इस प्रकार स्थित हुआ वह पुरुष लोक संग्रह के लिए कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता अर्थात् कर्मों से बँधता।।7।। वास्तव में कुछ करता भी नहीं है, इसलिए- न एव किञ्चित् करोमि इति युक्तः समाहितः सन् मन्येत चिन्तयेत् तत्वविद् आत्मनो याथात्म्यं तत्वं वेत्ति इति तत्ववित् परमार्थदर्शी इत्यर्थः। कदा कथं वा तत्त्वम् अवधारयन् मन्येत इति उच्यते- आत्मा के यथार्थ स्वरूप का नाम तत्व है उसको जानने वाला तत्वज्ञानी परमार्थदर्शी, समाहित होकर ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता। तत्व को समझकर कब और किस प्रकार ऐसे माने? सो कहते हैं- पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥8॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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