श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
प्रथम अध्यायएतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। हे मधुसूदन! मुझ पर वार करते हुए भी इन संबंधियों को त्रिलोकी का राज्य पाने वाले भी मैं मारना नहीं चाहता, फिर जरा सी पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?।।35।। निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन। हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र पुत्रों को मारने से हमें क्या प्रसन्नता होगी? प्रत्युत इन आततायियों को मारने से हमें पाप ही लगेगा।।36।। तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबानन्धवान्। इसलिए हे माधव! अपने कुटुम्बी धृतराष्ट्र पुत्रों को मारना हमें उचित नहीं है, क्योंकि अपने कुटुम्ब को नष्ट करके हम कैसे सुखी होंगे।।37।। यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः। यद्यपि लोभ के कारण जिनका चित्त भ्रष्ट हो चुका है, ऐसे ये कौरव कुलक्षयजनित दोष को और मित्रों के साथ वैर करने में होने वाले पाप को नहीं देख रहे हैं।।38।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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