श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 23

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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प्रथम अध्याय

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।35े।।

हे मधुसूदन! मुझ पर वार करते हुए भी इन संबंधियों को त्रिलोकी का राज्य पाने वाले भी मैं मारना नहीं चाहता, फिर जरा सी पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?।।35।।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।36े।।

हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र पुत्रों को मारने से हमें क्या प्रसन्नता होगी? प्रत्युत इन आततायियों को मारने से हमें पाप ही लगेगा।।36।।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबानन्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।37॥

इसलिए हे माधव! अपने कुटुम्बी धृतराष्ट्र पुत्रों को मारना हमें उचित नहीं है, क्योंकि अपने कुटुम्ब को नष्ट करके हम कैसे सुखी होंगे।।37।।

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।38।।

यद्यपि लोभ के कारण जिनका चित्त भ्रष्ट हो चुका है, ऐसे ये कौरव कुलक्षयजनित दोष को और मित्रों के साथ वैर करने में होने वाले पाप को नहीं देख रहे हैं।।38।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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