श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्याययः तु अकर्मादिदर्शी सः अकर्मादिदर्शनाद् एव निष्कर्मा सन्न्यासी जीवनमात्रार्थचेष्टः सन् कर्मणि न प्रवर्तते यद्यपि प्राग् विवेकतः प्रवृत्तः। यः तु प्रारब्धकर्म सन् उत्तरकालम् उत्पन्नात्मसम्यग्दर्शनः स्यात् स कर्मणि प्रयोजनम् अपश्यन् ससाधनं कर्म परित्यजति एव। स कुतश्चित् निमित्तात् कर्मपरित्यागासम्भवे सति कर्मणि तत्फले च संगरहिततया स्वप्रयोजनाभावात् लोकसङ्ग्रहार्थं पूर्ववर्त कर्मणि प्रवृत्तः अपि न एव किञ्चित् करोति। ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वात् तदीयं कर्म अकर्म एव सम्पद्यते इति एतम् अर्थं दर्शयिष्यन् आह- जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाला है, वह यदि विवेक होने से पूर्व कर्मों में लगा हो तो भी कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का ज्ञान हो जाने से केवल जीवन-निर्वाहमात्र के लिए चेष्टा करता हुआ कर्म रहित संन्यासी ही हो जाता है, फिर उसकी कर्मों में प्रवृत्ति नहीं होती। अर्थात् जो पहले कर्म करने वाला हो और पीछे जिसकी आत्मा का सम्यक् ज्ञान हुआ हो, ऐसा पुरुष कर्मों में कोई प्रयोजन न देखकर साधनों सहित कर्मों का त्याग कर ही देता है। परंतु किसी कारण से कर्मों का त्याग करना असम्भव होने पर की ऐसा पुरुष यदि कर्मों में और उनके फल मे आसक्तिरहित होकर केवल लोकसंग्रह के लिए पहले के सदृश कर्म करता रहता है तो भी निज का प्रयोजन न रहने के कारण (वास्तव में) वह कुछ भी नहीं करता। क्योंकि ज्ञान रूप अग्नि द्वारा भस्मीभूत हो जाने के कारण उसके कर्म अकर्म ही हो जाते हैं। इसी आशय को दिखाने की इच्छा से भगवान् कहते हैं- त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय: । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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