श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायबुद्धेः भेदो बुद्धिभेदो मया इदं कर्तव्यं भोक्तव्यं च अस्य कर्मणः फलम् अति निश्चितरूपाया बुद्धेः भेदनं चालनं बुद्धिभेदः तं न जनयेद् न उत्पादयेद् अज्ञानाम् अविवेकिनां कर्मसंगिनां कर्मणि आसक्तानाम आसंगवताम्। किं तु कुर्यात्, जोषयेत् कारयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् स्वयं तद् एव अविदुषां कर्म युक्तः अभियुक्तः समाचरन्।।26।। अविद्वान् अज्ञः कथं कर्मसु सज्जते इति आह- बुद्धि को विचलित करने का नाम बुद्धिभेद है, (ज्ञानी को चाहिए कि) कर्मों में आसक्ति वाले विवेक रहित अज्ञानियों की बुद्धि में भेद उत्पन्न न करे अर्थात् ‘मेरा यह कर्तव्य है,’ इस कर्म का फल मुझे भोगना है, इस प्रकार जो उनकी निश्चितरूपा बुद्धि बनी हुई है, उसको विचलित करना बुद्धिभेद करन है सो न करे। तो फिर क्या करे? समाहितचित्त विद्वान् स्वयं अज्ञानियों के ही (सदृश) उन कर्मों का (शास्त्रानुकूल) आचरण करता हुआ उनसे सब कर्म करावे।।26।। मूर्ख अज्ञानी मनुष्य कर्मों में किस प्रकार आसक्त होता है? सो कहते हैं- प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। प्रकृतेः प्रधानं सत्वरजस्तमसां गुणानां साम्यावस्था तस्याः प्रकृतेः गुणैः विकारैः कार्यकरण रूपैः क्रियामाणानि कर्माणि लौकिकानि शास्त्रीयाणि च सर्वशः सर्वप्रकारैः। अहंकारविमूढात्मा कार्यकरणसंघातात्मप्रत्ययः अहंकारः तेन विविधं नानाविधं मूढ आत्मा अंतःकरणं यस्य सः अयम्। कार्यकरणधर्मा कार्यकरणाभिमानी अविद्या कर्माणि आत्मनि मन्यमानः तत्तत्कर्मणाम् अहं कर्ता इति मन्यते।।27।। सत्व, रजस् और तमस्- इन तीनों गुणों की जो साम्यावस्था है, उसका नाम प्रधान या प्रकृति है, उस प्रकृति के गुणों से अर्थात् कार्य और करणरूप* समस्त विकारों से लौकिक और शास्त्रीय संपूर्ण कर्म सब प्रकार से किये जाते हैं। परंतु अहंकार विमूढात्मा- कार्य और करण के संघात रूप शरीर में आत्मभाव की प्रतीति का नाम अहंकार है, उस अहंकार से जिसका अंतःकरण अनेक प्रकार से मोहित हो चुका है ऐसा- देहेन्द्रिय के धर्म को अपना धर्म मानने वाला, देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृति के कर्मों को अपने में मानता हुआ उन-उन कर्मों का ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मान बैठता है।।27।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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