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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग रामकली111 ( सखी कहती है- ) ( श्यामके ) नेत्रोंकी छटा ऐसी मनोहारिणी है मानो अपने बलसे वह शारदीय कमलकी कान्तिको भी दूर ( तिरस्कृत ) करती है । वे अत्यन्त आनन्दमय तथा शक्तिशाली है इसलिये ( वे नेत्रकमल ) दिन-रात प्रफुल्लित रहते है । बिचारे ( तुच्छ ) खञ्जन मृग मछली ( आपके नेत्रोंकी ) उपमा पानेको अकुलाते-व्याकुल होते है ( किंतु वे इनकी तुलना कर नही सकते ) । ( इन-जैसी ) चञ्चलता और मनोहर चपलतापूर्ण देखनेकी छटाका विचार करनेपर ( इनमेसे ) एक भी उपमा चित्तमे ( तुलना-योग्य ) नही जँचती । जब कभी इनको देखनेमे एक निमेषका भी अन्तर पड जाता है तब वह पल युगके समान बीतता है । सूरदासजी कहते है वे रसमयी श्रीराधा इसीलिये ( पलकोंके संचालक देवता ) निमिपर अत्यन्त रोष ( क्रोध ) करती है ( कि वे पलक गिराकर मोहनकी शोभा देखनेमे बाधा डालते है ) । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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