श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 123

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग बिलावल

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देखि सखी ! यह सुंदरताई।
चपल नैन बिच चारु नासिका
इकटक दृष्टि रही तहँ लाई ॥1॥
करति बिचार परसपर जुबती
उपमा आनति बुद्धि बनाई।
मानौ खंजन बिच सुक बैठ्यौ
यह कहि कैं मन जाति लजाई ॥2॥
कछु इक तिल प्रसून की आभा
मन मधुरकर तहँ रहयौ लुभाई।
सूर स्याम नासिका मनोहर
यह सुंदरता उन कहँ पाई ॥3॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! यह सुन्दरता देख ! चञ्चल नेत्रोंके मध्यमे सुन्दर नाक है एकटक ( अपलक ) नेत्र ( वहाँ ) लगे रह जाते है । ( उसे देखकर ) व्रजयुवतियाँ परस्पर विचार कर और बुद्धि लगाकर यह उपमा देती है कि ’ मानो दो खञ्जनोके बीचमे तोता बैठा हो ’ तथा यह कहकर मनमे लज्जित हो जाती है ( कि उपमा ठीक नही बनी ) । कुछ-कुछ तिलके पुष्पकी कान्तिवाली ( नासिका ) पर मनरुपी भौंरा लुब्ध होकर रह जाता है । सूरदासजी कहते है- किंतु श्यामसुन्दरकी नासिका इतनी मनोहर है कि उसकी सुन्दरताको तिल-प्रसून कहाँ पा सके अर्थात नही पा सके है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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