श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 125

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग रामकली

112
आजु सखि ! देख स्याम नए ( री ) ।
निकसे आनि अचानक अबही इत फिरि फिरि चितए (री ) ॥1॥
मैं तब तैं पछिताति यहै तन नैन न बहुत भए ( री ) ।
जौं बिधना इतनी जानत है कित दृग दोइ दए ( री ) ॥2॥
सब दै लेउँ लाख लोचन कहुँ जो कोउ करत नए ( री )।
हरि प्रति अंग बिलोकन कौं मैं प्रन करि कैं पठए ( री ) ॥3॥
अपने चौंप बहुत कहँ पइए ए हरि संग गए ( री ) ।
थके चरन सुनि सूर मनौ गुन मदन बान बिधाए ( री ) ॥4॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! आज नवीन श्याम देखे जो अभी अचानक इधरसे आ निकले और ( उन्होने ) मेरी ओर बार-बार देखा तभीसे मै यही पश्चात्ताप कर रही हूँ कि ( आज उन्हे देखनेके लिये मेरे शरीरमे बहुत-से नेत्र क्यो न हुए; जब ब्रह्मा यह जानता था ( कि मुझे मोहनका दर्शन होना है ) तो उसने दो ही आँखे क्यो दी । यदि कोई नवीन बना सके तो मै अपना सर्वस्व देकर लाख नेत्र लूँ । श्यामके अंग-प्रत्यंगको देखनेके किले मैने प्रण करके ( दृढ निश्चय करके कि पूरा श्री अंग देख लूँगी ) मैने इनको उस ओर भेजा किन्तु अपनी इच्छा ( चाह ) होनेपर भी बहुत-से नेत्र कहाँसे मिले ( गाँठके ) दोनो भी हरिके साथ चले गये । सूरदासजी कहते है- उनके गुण सुनकर चरण ( ऐसे ) थकित ( ठिठके ) रह गये मानो कामदेवके बाणसे बिंधे हो ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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