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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग रामकली112 ( गोपी कह रही है- ) सखी ! आज नवीन श्याम देखे जो अभी अचानक इधरसे आ निकले और ( उन्होने ) मेरी ओर बार-बार देखा तभीसे मै यही पश्चात्ताप कर रही हूँ कि ( आज उन्हे देखनेके लिये मेरे शरीरमे बहुत-से नेत्र क्यो न हुए; जब ब्रह्मा यह जानता था ( कि मुझे मोहनका दर्शन होना है ) तो उसने दो ही आँखे क्यो दी । यदि कोई नवीन बना सके तो मै अपना सर्वस्व देकर लाख नेत्र लूँ । श्यामके अंग-प्रत्यंगको देखनेके किले मैने प्रण करके ( दृढ निश्चय करके कि पूरा श्री अंग देख लूँगी ) मैने इनको उस ओर भेजा किन्तु अपनी इच्छा ( चाह ) होनेपर भी बहुत-से नेत्र कहाँसे मिले ( गाँठके ) दोनो भी हरिके साथ चले गये । सूरदासजी कहते है- उनके गुण सुनकर चरण ( ऐसे ) थकित ( ठिठके ) रह गये मानो कामदेवके बाणसे बिंधे हो । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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