श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 115

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग नट

102
हरि तन मोहिनी माई।
अंग अंग अनंग सत सत बरनि नहिं जाई ॥1॥
कोउ निरखि बिथुरी अलक मुख अधिक सुख छाई ॥2॥
कोउ निरखि रहि भाल चंदन एक चित लाई।
कोउ निरखि बिथकी भ्रकुटि पै नैन ठहराई ॥3॥
कोउ निरखि रहि चारु लोचन निमिष भरमाई।
सूर प्रभु की निरखि सोभा कहत नहिं आई॥4॥

( गोपी कहती है- ) ’ सखी ! श्याम के शरीरमे कोई जादू है उनके अंग-प्रत्यंगमे सैकडो कामदेवोंकी छटा होनेसे उनका वर्णन नही किया जा सकता । कोई मस्तकके मुकुटकी छटा देखकर अपने-आपको भूल गयी है और कोई मुखपर बिखरी अलकोंको देखकर अत्यन्त आनन्दमे निमग्न है । कोई एकाग्रचित्तसे ललाटपर लगे चन्दनको देख रही है ( तो ) कोई भृकुटिपर नेत्र स्थिर करके ( उसे ) देखती मुग्ध हो रही है । कोई अपलक नेत्रोंसे सुन्दर नेत्र देख रही है । ’ सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी शोभा देखकर उसका वर्णन कोई कर नही सका है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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