प्रेम सुधा सागर पृ. 67

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
एकादश अध्याय

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परीक्षित! माता यशोदा का सम्पूर्ण मन-प्राण प्रेम-बन्धन से बँधा हुआ था। वे चराचर जगत के शिरोमणि भगवान को अपना पुत्र समझतीं और इस प्रकार कहकर एक हाथ से बलराम तथा दूसरे हाथ से श्रीकृष्ण को पकड़कर अपने घर ले आयीं। इसके बाद उन्होंने पुत्र के मंगल के लिए जो कुछ करना था, वह बड़े प्रेम से किया।

जब नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने देखा कि महावन में तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, तब वे लोग इकट्ठे होकर ‘अब ब्रजवासियों को क्या करना चाहिए’ - इस विषय पर विचार करने लगे। उनमें से एक गोप का नाम था उपनन्द। वे अवस्था में तो बड़े थे ही, ज्ञान में भी बड़े थे। उन्हें इस बात का पता था कि किस समय किस स्थान पर किस वस्तु से कैसा व्यवहार करना चाहिए। साथ ही वे यह भी चाहते थे कि राम और श्याम सुखी रहें, उन पर कोई विपत्ति न आवे।

उन्होंने कहा— ‘भाइयों! अब यहाँ ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चों के लिए तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं। इसलिए यदि हम लोग गोकुल और गोकुलवासियों का भला चाहते हैं, तो हमें यहाँ से अपना डेरा-डंडा उठाकर कूच कर देना चाहिये। देखो, यह सामने बैठा हुआ नन्दराय का लाड़ला सबसे पहले तो बच्चों के लिए कालस्वरूपिणी हत्यारी पूतना के चंगुल से किसी प्रकार छूटा। इसके बाद भगवान की दूसरी कृपा यह हुई कि इसके ऊपर इतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा। बवंडररूपधारी दैत्य ने तो इसे आकाश में ले जाकर बड़ी भारी विपत्ति (मृत्यु के मुख) में ही डाल दिया था, परन्तु वहाँ से जब वह चट्टान पर गिरा, तब भी हमारे कुल के देवेश्वरों ने ही इस बालक की रक्षा की। यमलार्जुन वृक्षों के गिरने के समय उसके बीच में आकर भी यह या और कोई बालक न मरा। इससे भी यही समझना चाहिये कि भगवान ने हमारी रक्षा की। इसलिए जब तक कोई बहुत बड़ा अनिष्टकारी अरिष्ट हमें और हमारे ब्रज को नष्ट न कर दे, तब तक ही हम लोग अपने बच्चों को लेकर अनुचरों के साथ यहाँ से अन्यत्र चले चलें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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