प्रेम सुधा सागर पृ. 68

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
एकादश अध्याय

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वृन्दावन’ नाम का एक वन है। उसमें छोटे-छोटे और भी बहुत-से नये-नये हरे-भरे वन हैं। वहाँ बड़ा ही पवित्र पर्वत, घास और हरी भरी लता वनस्पतियाँ हैं। हमारे पशुओं के लिये तो वह बहुत ही हितकारी है। गोप, गोपी और गायों के लिये वह केवल सुविधा का ही नहीं, सवाल करने योग्य स्थान है। सो यदि तुम सब लोगों को यह बात जँचती हो तो आज ही हम लोग वहाँ के लिए कूच कर दें। देर न करें, गाड़ी-छकड़े जोतें और पहले गायों को, जो हमारी एकमात्र सम्पत्ति हैं, वहाँ भेज दें।'

उपनन्द की बात सुनकर सभी गोपों ने एक स्वर से कहा - ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक।’ इस विषय में किसी का भी मतभेद न था। सब लोगों ने अपनी झुंड की झुंड गायें इकट्ठी कीं और छकड़ों पर घर की सब सामग्री लादकर वृन्दावन की यात्रा की। परीक्षित! ग्वालों ने बूढ़ों, बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्रियों को छकड़ों पर चढ़ा दिया और स्वयं उनके पीछे-पीछे धनुष-बाण लेकर बड़ी सावधानी से चलने लगे। उन्होंने गौ और बछड़ों को तो सबसे आगे कर लिया और उनके पीछे-पीछे सिगी और तुरही ज़ोर-ज़ोर से बजाते हुए चले।

उनके साथ ही-साथ पुरोहित लोग भी चल रहे थे। गोपियाँ अपने-अपने वक्षःस्थल पर नयी केसर लगाकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर, गले में सोने के हार धारण किये हुए रथों पर सवार थीं और बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के गीत गाती जाती थीं। यशोदा रानी और रोहिणी जी भी वैसे ही सज-धजकर अपने-अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण तथा बलराम के साथ एक छकड़े पर शोभायमान हो रही थीं। वे अपने दोनों बालकों की तोतली बोली सुन-सुनकर भी अघाती न थीं, और-और सुनना चाहतीं थीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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