प्रेम सुधा सागर पृ. 54

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
नवम अध्याय

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श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदा जी ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं (अपने लाला को मक्खन खिलाने के लिए) दही मथने लगीं।[1]

मैंने तुमसे अब तक भगवान की जिन-जिन बाल-लीलाओं का वर्णन किया है, दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गातीं भी जाती थीं।[2]

वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनों में से पुत्र-स्नेह की अधिकता से दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहने से बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथों में कंगन और कानों में कर्णफूल हिल रहे थे। मुँह पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। चोटी में गुँथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रहीं थीं।[3]

उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस प्रसंग में ‘एक समय’ का तात्पर्य है कार्तिक मास। पुराणों में इसे ‘दामोदर मास’ कहते हैं। 'इन्द्रयाग' के अवसर पर दासियों के दूसरे कामों में लग जाना स्वाभाविक है। ‘नियुक्तासु’ - इस पद से ध्वनित होता है कि यशोदा माता ने जान-बूझकर दासियों को दूसरे काम में लगा दिया। ‘यशोदा’ - नाम उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्य प्रेम के व्यवहार से षडैश्वर्यशाली भगवान को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता के कारण के कारण अपने भक्तों के हाथों बँध जाने का ‘यश’ यही देती हैं। गोपराज नन्द के वात्सल्य प्रेम के आकर्षण से सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान नन्दनन्दन रूप से जगत में अवतीर्ण होकर जगत के लोगों को को आनन्द प्रदान करते हैं। जगत को इस अप्राकृत परमानन्द स्वरूप का रसास्वादन कराने में नन्द बाबा ही कारण हैं। उन नन्द की गृहिणी होने से उन्हें ‘नन्दगोहिनी’ कहा गया है। साथ ही ‘नन्दगोहिनी’ और ‘स्वयं’ - ये दो पद इस बात के सूचक हैं कि दधि मन्थन कर्म उनके योग्य नहीं है। फिर भी पुत्र-स्नेह की अधिकता से यह सोचकर कि मेरे लाला को मेरे हाथ का माखन ही भाता है, वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं।
  2. इस श्लोक में भक्त के स्वरूप का निरूपण है। शरीर से दधि मन्थन रूप सेवा कर्म हो रहा है, हृदय में स्मरण की धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणी में बाल-चरित्र का संगीत। भक्त के तन, मन, वचन - सब अपने प्यारे की सेवा में संलग्न हैं। स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवा के रूप में ही व्यक्त होता है। स्नेह के ही विलास विशेष हैं - नृत्य और संगीत। यशोदा मैया के जीवन में इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट हैं।
  3. प्रेम सुधा सागर अध्याय 9 श्लोक 3 का विस्तृत संदर्भ
  4. हृदय में लीला की सुख स्मृति, हाथों से दधि मन्थन और मुख से लीलागान - इस प्रकार मन, तन, वचन तीनों का श्रीकृष्ण के साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर ‘माँ-माँ’ पुकारने लगे। अब तक भगवान श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे। माँ की स्नेह-साधना ने उन्हें जगा दिया। वे निर्गुण से सगुण हुए, अचल से चल हुए, निष्काम से सकाम हुए; स्नेह के भूखे-प्यासे माँ के पास आये। क्या ही सुन्दर नाम है - ‘स्तन्यकाम’! मन्थन करते समय आये, बैठी-ठाली के पास नहीं। सर्वत्र भगवान साधन की प्रेरणा देते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; परन्तु मथानी पकड़ कर मैया को रोक लिया। ‘माँ! अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी। पिष्ट-पेषण करने से क्या लाभ? अब मैं तेरी साधना का इससे अधिक भार नहीं सह सकता।’ माँ प्रेम से दब गयी - निहाल हो गयी- मेरा लाला मुझे इतना चाहता है।

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