प्रेम सुधा सागर पृ. 432

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौंसठवाँ अध्याय

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श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब अनन्तमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नृग से (क्योंकि वे ही इस रूप में प्रकट हुए थे) इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्य के समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे।

राजा नृग ने कहा- प्रभो! मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा। प्रभो! आप समस्त प्राणियों की एक-एक वृत्ति के साक्षी हैं। भूत और भविष्य का व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकता। अतः आपसे छिपा ही क्या है? फिर भी मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये कहता हूँ।

भगवन्! पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्षा में जितनी जल की धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं। वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्याय के धन से प्राप्त किया था। सबके साथ बछड़े थे। उनके सींगों में सोना मढ़ दिया गया था और खुरों में चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनों से सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैने दी थीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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