प्रेम सुधा सागर पृ. 433

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौंसठवाँ अध्याय

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भगवन्! मैं युवावस्था से सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारों को- जो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्ट में पड़े हुए कुटुम्ब वाले, दम्भरहित, तपस्वी, वेदपाठी, शिष्यों को विद्यादान करने वाले तथा सच्चरित्र होते- वस्त्राभूषण से अलंकृत करता और उन गौओं का दान करता। इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दासियों के सहित कन्याएँ, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कुएँ, बावली आदि बनवाये।

एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेने वाले), तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया। जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा- ‘यह गौ मेरी है।’ दान ले जाने वाले ब्राह्मण ने कहा- ‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है’। वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिये मेरे पास आये। एक ने कहा- 'यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है’ और दूसरे ने कहा कि ‘यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।’

भगवन्! उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया। मैंने धर्मसंकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि ‘मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आप लोग मुझे यह गाय दे दीजिये। मैं आप लोगों का सेवक हूँ। मुझसे अनजाने में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आप लोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिरने से बचा लीजिये’।

‘राजन! मैं इसके बदले मैं कुछ नहीं लूँगा।’ यह कहकर गाय का स्वामी चला गया।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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