प्रेम सुधा सागर पृ. 426

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
तिरसठवाँ अध्याय

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पिनाकपाणि शंकर जी ने भगवान श्रीकृष्ण पर भाँति-भाँति के अगणित अस्त्र-शास्त्रों का प्रयोग किया, किन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने बिना किसी प्रकार के विस्मय के उन्हें विरोधी शस्त्रास्त्रों से शान्त कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मास्त्र की शान्ति के लिये ब्रह्मास्त्र का, वायव्यास्त्र के लिये पर्वतास्त्र का, आग्नेयास्त्र के लिये पर्जन्यास्त्र का और पाशुपतास्त्र के लिये नारायणास्त्र का प्रयोग किया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र से (जिससे मनुष्य को जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है) महादेवजी को मोहित कर दिया। वे युद्ध से विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण शंकरजी से छुट्टी पाकर तलवार, गदा और बाणों से बाणासुर की सेना कर संहार करने लगे। इधर प्रद्दुम्न ने बाणों की बौछार से स्वामिकार्तिक को घायल कर दिया, उनके अंग-अंग से रक्त की धारा बह चली, वे रणभूमि छोड़कर अपने वाहन मयूर द्वारा भाग निकले। बलरामजी ने अपने मूसल की चोट से कुम्भाण्ड और कुपकर्ण को घायल कर दिया, वे रणभूमि में गिर पड़े। इस प्रकार अपने सेनापतियों को हताहत देखकर बाणासुर की सारी सेना तितर-बितर हो गयी।

जब रथ पर सवार बाणासुर ने देखा कि श्रीकृष्ण आदि के प्रहार से हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढ़कर सात्यिक को छोड़ दिया और वह भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने के लिये दौड़ पड़ा। परीक्षित्! रणोंन्मत्त बाणासुर ने अपने एक हजार हाथों से एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर एक-एक पर दो-दो बाण चढ़ाये ।परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने एक साथी ही उसके सारे धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ों को भी धराशायी कर दिया एवं शंखध्वनि की। कोटरा नाम की एक देवी बाणासुर की धर्ममाता थी। वह अपने उपासक पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिये बाल बिखेरकर नंग-धडंग भगवान श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गयी। भगवान श्रीकृष्ण ने इसलिये कि कहीं उस पर दृष्टि न पड़ जाय, अपना मुँह फेर लिया और वे दूसरी ओर देखने लगे। तब तक बाणासुर धनुष कट जाने और रथ हीन हो जाने के कारण अपने नगर में चला गया। इधर जब भगवान शंकर के भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैर वाला ज्वर दासों दिशाओं को जलाता हुआ-सा भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अपनी ओर आते देखकर उसका मुकबला करने के लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों ज्वर आपस में लड़ने लगे। अन्त में वैष्णव ज्वर के तेज से माहेश्वर ज्वर पीड़ित होकर चिल्लाने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला, तब वह अत्यन्त नम्रता से हाथ जोड़कर शरण में लेने के लिये भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगा ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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