प्रेम सुधा सागर पृ. 427

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
तिरसठवाँ अध्याय

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ज्वर ने कहा—प्रभो! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रह्मादि ईश्वरों के भी परम महेश्वर हैं। आप सबके आत्मा और सर्वस्वरूप हैं। आप अद्वितीय और केवल ज्ञानस्वरूप हैं। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण आप ही हैं। श्रुतियों के द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप समस्त विकारों से रहित स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। काल, दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव, स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर, सुत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पंचभूत-इन सबका संघात लिंगशरीर और बीजांकुर-न्याय के अनुसार उससे कर्म और कर्म से फिर लिंग-शरीर की उत्पत्ति—यह सब आपकी माया है। आप माया के निषेध की परम अवधि हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। प्रभो! आप अपनी लीला से ही अनेकों रूप धारण कर लेते हैं और देवता, साधु तथा लोकमर्यादाओं का पालन-पोषण करते हैं। साथ ही उन्मार्गगामी और हिंसक असुरों का संहार भी करते हैं। आपका यह अवतार पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही हुआ है। प्रभो! आपके शान्त, उग्र और अत्यन्त भयानक दुस्सह तेज ज्वर से मैं अत्यन्त सन्तप्त हो रहा हूँ। भगवन्! देहधारी जीवों को तभी तक ताप-सन्ताप रहता है, जब तक वे आशा के फंदों में फँसे रहने के कारण आपके चरण-कमलों की शरण नहीं ग्रहण करते ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘त्रिशिर! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वर से निर्भय हो जाओ। संसार में जो कोई हम दोनों के संवाद का स्मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न रहेगा’। भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर माहेश्वर ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया। तब तक बाणासुर रथ पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिये फिर आ पहुँचा। परीक्षित्! बाणासुर ने अपने हजार हाथों में तरह-तरह हथियार ले रखे थे। अब वह अत्यन्त क्रोध में भरकर चक्रपाणि भगवान पर बाणों की वर्षा करने लगा। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि बाणासुर ने तो बाणों की झड़ी लगा दी है, तब वे छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्ष की छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो। जब भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने देखा की बाणासुर की भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के पास आये और स्तुति करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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