प्रेम सुधा सागर पृ. 418

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
इकसठवाँ अध्याय

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परीक्षित्! रुक्मी का भगवान श्रीकृष्ण के साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणी को प्रसन्न करने के लिये उसने अपनी पौत्री रोचना का विवाह रुक्मिणी के पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्ध के साथ कर दिया। यद्यपि रुक्मी को इस बात पता था कि इस प्रकार का विवाह-सम्बन्ध धर्म के अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह-बन्धन में बँधकर उसने ऐसा कर दिया। परीक्षित्! अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिये भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्दुम्न, साम्ब आदि द्वारिकावासी भोजकट नगर में पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंगनरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि ‘तुम बलराम जी को पासों के खेल में जीत लो ।

राजन्! बलराम जी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने का बहुत बड़ा व्यसन है।’ उन लोगों के बहकाने से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा। बलरामजी ने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरों का दाँव लगाया। उन्हें रुक्मी ने जीत लिया। रुक्मी की जीत होने पर कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलराम जी की हँसी उड़ाने लगा। बलरामजी से वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये। इसके बाद रुक्मी ने एक लाख मुहरों का दाँव लगाया। उसे बलरामजी ने जीत लिया। परन्तु रुक्मी धूर्तता से यह कहने लगा कि ‘मैंने जीता है’। इस पर श्रीमान् बलरामजी क्रोध से तिलमिला उठे। उनके हृदय में इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभाव से ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोध के मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरों का दाँव रखा। इस बार भी द्यूतिनियम के अनुसार बलरामजी की ही जीत हुई। परन्तु रुक्मी ने छल करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषय के विशेषज्ञ कलिंगनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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