प्रेम सुधा सागर पृ. 417

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
इकसठवाँ अध्याय

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राजा परीक्षित् ने पूछा—परम ज्ञानी मुनीश्वर! भगवान श्रीकृष्ण ने रणभूमि में रुक्मी का बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बात की घात में रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्ण से उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालूँ। ऐसी स्थिति में उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रु के पुत्र प्रद्दुम्नजी को कैसे ब्याह दी ? कृपा करके बतलाइये! दो शत्रुओं में—श्रीकृष्ण और रुक्मी में फिर से परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ ? आपसे कोई बात छिपी नहीं है। क्योंकि योगीजन भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातें भलीभाँति जानते हैं। उनसे ऐसी बातें भी छिपी नहीं रहती; जो इन्द्रियों से परे हैं, बहुत दूर हैं अथवा बीच में किसी वस्तु की आड़ होने के कारण नहीं दीखतीं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित्! प्रद्दुम्नजी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणों पर रीझकर रुक्मवती ने स्वयंवर में उन्हीं को वरमाला पहना दी। प्रद्दुम्नजी ने युद्ध में अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए नरपतियों को जीत लिया और रुक्मवती को हर लाये ।

यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण से अपमानित होने के कारण रुक्मी के हृदय की क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणी को प्रसन्न करने के लिये उसने अपने भानजे प्रद्दुम्न को अपनी बेटी ब्याह दी। परीक्षित्! दस पुत्रों के अतिरिक्त रुक्मिणीजी के एक परम सुन्दरी बड़े-बड़े नेत्र वाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्मा के पुत्र बली के ने उसके साथ विवाह किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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